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________________ २८ श्री शान्तिनाथपुराणम् तरुभिः 'सूनगन्धेन दानामोदेन दन्तिभिः । इतस्ततः प्रलोभ्यन्ते भृङ्गाः पद्मवनेरपि ॥ २८ ॥ वहन्त्येता जलं चात्र नद्यो दन्तिमदाविलम् । रक्ष्यमारणं तटीरत्नव्युदस्तेन्द्रायुधेरिव ॥ २६ ॥ नक्तं चन्द्रकराक्रान्तचन्द्रकान्तोज्झिताम्बुभिः । विध्यापयति सानुस्थान् क्वचिद्दावानलानयम् ॥३०॥ क्रमादारोहतो मानोरस्य शृङ्गपरम्पराम् । एकस्मिन्वासरे नंकोsप्युदयः खलु लक्ष्यते ॥ ३१॥ इति तस्य परां मूर्ति रौप्यार्द्रानिगदंस्तयोः । दमितारे: परं नाम्ना स प्राप शिवमन्दिरम् ||३२|| श्रलङ्घयपरिखासालं चतुर्गापुरराजितम् । जगत्त्रयमिवैकत्र पुञ्जीभूय व्यवस्थितम् ॥३३॥ यद्भाति सौध की शाखानगरभूतिभिः । सप्रासादः पुरंरेत्य वीक्ष्यमाणमिवामरैः ५ ।। ३४ || यत्सौध कुड्यसंक्रान्तबालादित्य परम्पराम् । बिभक्त काखण्डपटलावलिविभ्रमाम् ||३५|| कषपताकावलिविभ्रमः । जेतुमाह्वयतेऽजस्त्र स्वं कान्त्येवामरीं | पुरीम् ॥३६॥ परया सम्पदा यच्च प्रत्यहं वर्द्धमानया । प्रतिशेते स्वरप्युच्चर्जनानां पुण्यभागिनाम् ||३७|| यस्मिन्प्रासादपर्यन्तान्भ्रमन्त्य भ्रारिण सन्ततम् । तद्रत्नभित्तिसंक्रान्तस्वरूपारणीव वीक्षितुम् ॥ ३८ ॥ करने में समर्थ है ऐसा वन के बीच में स्थित यह सरोवर स्वर्ण कमलों से सुशोभित हो रहा है ||२७|| जहां तहां भौंरे वृक्षों द्वारा फूलों की गन्ध से, हाथियों द्वारा मदजल की सुवास से भौर कमलवनों द्वारा अपनी सुगन्ध से लुभाये जा रहे हैं ।। २६ ।। यहां ये नदियां हाथियों के मद से मलिन तथा किनारों पर लगे रत्नोंके द्वारा ताने हुए इन्द्रधनुषोंसे मानों सुरक्षित जल को धारण कर रही हैं ॥ २६ ॥ यह पर्वत कहीं रात्रि के समय चन्द्रमा की किरणों से व्याप्त चन्द्रकान्त मणियों के द्वारा छोड़े हुए जल से शिखरों पर स्थित दावानल को बुझा रहा है ||३०|| सूर्य इस पर्वत की शिखरों पर क्रम क्रम से श्रारूढ़ होता है अतः निश्चय से एक दिन में एक ही सूर्योदय दिखाई नहीं देता । भावार्थ - भिन्न भिन्न शिखरों पर क्रम से भारूढ़ होने पर ऐसा जान पड़ता है कि यहां सूर्योदय कई बार हो रहा है ।। ३१ ।। इस प्रकार उन गायिकाओं के लिये विजयार्घ पर्वत की उत्कृष्ट सम्पदा का वर्णन करता हुआ वह अमित विद्याधर दमितारि चक्रवर्ती के शिव मन्दिर नामक नगर को प्राप्त हुआ ।। ३२ ।। जिसकी परिखा और कोट अलङ्घय था तथा जो चार गोपुरों से सुशोभित था ऐसा वह नगर इस प्रकार जान पड़ता था मानों तीनों लोक एक ही स्थान पर इकट्ठ े होकर स्थित हो गये हों ।। ३३ || महलों से संकीर्ण - अच्छी तरह व्याप्त शाखानगरों की विभूति से जो नगर ऐसा सुशोभित हो रहा है मानों महलों से युक्त देवों के नगर ही श्राकर उसे देख रहे हों ||३४|| जिसके महलों की दीवालों में प्रातःकाल के सूर्य की सन्तति प्रतिबिम्बित हो रही है ऐसा यह नगर महावर के अखण्ड पटल समूह के सन्देह को धारण कर रहा है ।। ३५ ।। जो नगर गगन चुम्बी महलों के अग्रभाग पर लगी हुई पताकावली के संचार से ऐसा जान पड़ता है मानों कान्ति के द्वारा अपने आपको जीतने के लिये से स्वर्ग पुरी को ही निरन्तर बुला रहा है । ३६ ।। जो नगर प्रतिदिन बढ़ती हुई उत्कृष्ट सम्पदा पुण्य शाली उत्तम मनुष्य के स्वर्ग को भी प्रतिक्रान्त करता रहता है ||३७|| जिस नगर में निरन्तर मेघ, १ प्रसून सौरभ्येण २ मदगन्धेन ३ गायिकयोः ४ एतनामनगरम् ५ अमराणामिमानि आमराणि तैः पुरै: ६ अमराणामियम आमरी तां स्वर्गपुरीमित्यर्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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