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________________ ( १० ) समान जिनका उज्ज्वल यश था और जो पृथ्वी पर व्याकरण तथा सिद्धान्त शास्त्ररूपी सागर के पारगामी थे ।। ४ ।। प्रसग का एक जिनाप नाम का मित्र था वह जिनाप भव्य जीवों का सेवनीय था अर्थात् भव्य जीव उसका बहुत सम्मान करते थे, जैन धर्म में आसक्त था, शौर्य गुण से प्रसिद्ध होने पर भी वह परलोक भीरु था - शत्रुनों से भयभीत रहता था ( पक्ष में नरकादि परभव से भयभीत रहता था ) और द्विजाधि नाथ -पक्षियों का स्वामी - गरुड़ होकर भी ( पक्ष में ब्राह्मण क्षत्रिय तथा वैश्यवर्ग में प्रधान होकर भी ) पक्षपात ( पङ्खों के संचार ) से रहित था ( पक्ष में पक्षपात से रहित था अर्थात् स्नेह वश किसी से पक्षपात का व्यवहार नहीं करता था ) ।। ५ ।। पवित्र बुद्धि के धारक उस जिनाप को व्याख्यान - कथोपकथन अर्थात् नाना कथाओं का श्रवण करना अत्यन्त रुचिकर था तथा पुराणों में भी उसकी श्रद्धा बहुत थी, इसका विचार कर उसका प्रबल ग्रह होने पर प्रसग ने कवित्व शक्ति से रहित होने पर भी इस प्रबन्ध की ( शान्तिनाथ पुराण की रचना की ।। ६ ।। उत्तम अलंकार और नाना छन्दों की रचना से युक्त श्री वर्धमान चरित की रचना कर प्रसग ने साधुजनों के उत्कट मोह की शान्ति के लिये श्री शान्तिनाथ भगवान् का यह पुराण रचा है || ७ ॥ * प्रसग ने वर्धमान चरित की प्रशस्ति में अपने पर ममता भाव प्रकट करने वाली संपत् श्राविका का और शान्तिनाथ पुराण की प्रशस्ति में अपने मित्र जिनाप नामक ब्राह्मण मित्र का उल्लेख किया हैं अत: प्रतीत होता है कि यह दोनों ग्रन्थों की रचना के समय गृहस्थ ही थे मुनि नहीं । पश्चात् मुनि हुए या नहीं, इसका निर्देश नहीं मिलता । यह चोल देश के रहने वाले थे और श्री नाथ राजा के राज्य में स्थित विरला नगरी में इन्होंने प्राठ ग्रन्थों की रचना की थी । यतश्च इनकी मातृभाषा करर्णाटक थी, अतः जान पड़ता है कि इनके शेष ६ ग्रन्थ करर्णाटक भाषा के ही हों और वे दक्षिण भारत के किन्हीं भाण्डारों में पडे हों या नष्ट हो गये हों । भाषा की विभिन्नता से उनका उत्तर भारत में प्रचार नहीं हो सका हो । प्राच्य विद्या मन्दिर मैसूर में मैंने देखा है कि वहां यत्र तत्र से संगृहीत करर्णाटक भाषा में लिखित ताड़ पत्रीय हजारों प्रतियां अपठित और अनवलोकित दशा में स्थित हैं । उन सबका अध्ययन होने पर अनेक जैन ग्रन्थों के मिलने की संभावना है । करण - टेक भाषा का अध्ययन न होने से उत्तर भारत विद्वान इस विषय की क्षमता नहीं रखते प्रत: दक्षिण भारत के विद्वानों का इस ओर ध्यान जाना आवश्यक है । प्राच्य विद्या मन्दिर ने यत्र तत्र पाये जाने वाले ग्रन्थों के संग्रह का अभियान शुरु किया है और इसी अभियान के फल स्वरूप उसे हजारों प्रतियां प्राप्त हुई हैं । असम ने शान्तिनाथ पुराण में रचनाकाल का उल्लेख नहीं किया है परन्तु वर्धमान चरित में 'संवत्सरे दश नवोत्तर वर्ष युक्ते' श्लोक द्वारा उसका उल्लेख किया है । 'अङ्कानां वामतो गतिः' के ॐ शान्तिनाथपुराण पृष्ठ २५६ - २५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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