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________________ षष्ठ सर्ग: प्रतिबोधयितुं साध्वीं त्वामतोऽहमुपागमम् । प्रतिपन्नमनावेद्य कस्तिष्ठति सहोदरः ॥३॥ अतो निवर्तयात्मानं विषयानावसम्मता । माक्मंस्था वचो मरकं विधत्स्व स्वहितं तपः ॥१४॥ सर्वसङ्गपरित्यागानापरं परमं सुखम् । तृष्णाप्रपञ्चतो नान्यन्नरकं घोरमुध्यते ॥६॥ इत्युवीर्य वचो देवी सोदर्यस्नेहकातरा । व्यरंसीत्तद्वचः श्रुत्वा वीक्ष्य तां च मुमेह सा HE६|| अचिराच्चेतनां प्राप्य चन्वनव्यजनामिभिः । सुमतिस्तामत्याह प्रणामानन्तरं मुदा ॥७॥ निविंशत्या त्वया सौल्यमापि' अविष्यमयंजनः । सौहावं तस्य हेतुस्ते न मत्पुण्यफलोदयः ।। दुर्गिवर्तमानां मां स्थापयन्स्यप सत्पथे । किमु तुल्या परा काचिबन्धुता मे हिता भवेत् ॥ प्रतिपन्नं त्वया तच्च नियू प्रतियोव्य माम् । वजन्ती स्वहिते मार्गे मानयिष्यामि ते वचः ॥१०॥ "जन्माम्भोधौ परं मग्नां विषयमाहनीषणे । मामुद्धृत्य त्वयैवायं बन्धुस्नेहः कृती कृतः ॥१०१॥ महान्तो हि न सापेक्षं परेषामुपकुर्वते । परोपकारिता भाति नियंपेक्षा तथैव ते ॥१०॥ दुरन्तविषयासङ्गग्राहव्यग्रीकृताशया । त्वदुक्तिमवमन्ये चेद्व ययं नाम मे व्रजेत् ॥१.३॥ ठहरता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥६३।। इसलिये इस अनिष्ट विषय के कारणस्वरूप विवाह से अपने आपको दूर करो मेरे वचन का अनादर मत करो, आत्महितकारी तप करो ॥६४॥ सर्व परिग्रह के त्याग से बढ़कर दूसरा सुख नहीं है और तृष्णा के विस्तार से बढ़कर दूसरा भयंकर नरक नहीं कहलाता है ॥६५॥ बहिन के स्नेह से कातर देवी इस प्रकार के वचन कह कर रुक गयी और उसके वचन सुनकर तथा उस देवी को देखकर वह सुमति मूच्छित हो गयी ॥६६॥ चन्दन तथा पङ्खा आदि के द्वारा शीघ्र ही चेतना को प्राप्त कर सुमति ने उस देवी को हर्ष पूर्वक प्रणाम किया पश्चात् इसप्रकार कहा ।।१७।। स्वर्गीय सुख का उपभोग करने वाली आपके द्वारा यह जन प्राप्त किया गया अर्थात् स्वर्ग के सुख छोड़कर आप मेरे पास आयीं इसका कारण आपका सौहार्द है मेरे पुण्य फल का उदय नहीं ।।१८।। खोटे मार्ग में रहने वाली मुझ को आप सन्मार्ग में लगा रही हैं इसके तुल्य मेरा हित करने वाली दूसरी बन्धुता क्या है ? अर्थात् कुछ नहीं ।।१६।। तुमने जो स्वीकृत किया था उसे मुझे संबोधित कर पूरा किया। अब मैं आत्महितकारी मार्ग में जाती हुई तुम्हारे वचनों को मानूगी ॥१००॥ विषय रूपी मगरमच्छों से भयंकर संसाररूपी समुद्र में डूबी हुई मुझको निकाल कर तुमने यह बहुत कुशल अत्यन्त श्रेष्ठ बन्धु स्नेह पूरा किया है ।।१०१।। जिस प्रकार महा पुरुष कुछ अपेक्षा रखकर दूसरों का उपकार नहीं करते हैं उसीप्रकार तुम्हारी परोपकारिता प्रत्युपकार की वाञ्छा से रहित सुशोभित हो रही है ॥१०२।। दुष्परिपाक वाले विषयासङ्ग रूपी पिशाच से जिसका हृदय व्यग्र किया गया है ऐसी मैं यदि आपके कथन का अनादर करती हूं तो मेरा 'सुमति' नाम व्यर्थता को प्राप्त होगा—मेरा सुमति ( अच्छी बुद्धिवाली ) नाम १ मदीयम् २ प्राप्तः ३ स्वर्गसम्बन्धि ४ संसारसागरे ५ कुशलः ६ प्रत्युपकार वाञ्छारहिता । Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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