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________________ ४७६ ] मेरु मंदर पुराण वंदमी नल्लरी विरेवन् ट्रिरुवरुवम् कानार् । वंदेछंद वानंदत्तिन् मयांगि मिगत्तुवित्तार् ॥१२६३॥ अर्थ-श्रद्धापूर्वक उस मंदिर के दर्शन करने जाते समय प्रदक्षिणा देते हुए मंदिर के किवाड अपने आप खुल जाते हैं। उस समय वे भगवान के गर्भगृह में जाकर उनका रूप देख कर भक्ति से स्तुति करते हैं ।।१२६३।। अनंतवरि वालनंत वीर्यनु मानाय । अनंद देरिशि अनंद विब मुडे योय ॥ मनं शेयलिन वनंगिनवर पनिदुलग मेत्त । निनैद पडि यदि विनं नीतुयर्व नड्रे॥१२९४॥ अर्थ-वे देव इस प्रकार स्तुति करते हैं कि हे भगवन् ! पाप अनंत ज्ञानों से युक्त हैं। अनंत दर्शन, अनंत सुख को प्राप्त हुए पाप को मन, वचन, काय से नमस्कार करने वाले को उसकी मन की जो भी इच्छा होती है उसे पूर्ण करते हैं, और पाप की भक्ति करने वाले को क्रम से तपश्चरण करके आगे जाकर मोक्ष की प्राप्ति करा देते हैं ॥१२६४॥ येंड्र, निड, तुवित्तिरैव नाल येत्तिनुळ्ळा। लड़ शेड पुक्कमर रासरवर तांगळ ॥ बैंड्रवर् तमिर वन ट्रिरुवरुवदनुक्केप । निड्रवर्गळ् पैद शिरप्पेवनिने परिदे ॥१२६५॥ अर्थ- इस प्रकार स्तुति करते हुए देवेंद्रों ने भगवान के मंदिर में प्रवेश कर जिनेंद्र भगवान का पंचामृत अभिषेक प्रारंभ किया॥१२६५।। तोळ्ग रायिर् तळुत्तिन मणिक्कुडं सोदमन् मुदलानोर् । वीळु मेरुविन् नरुविन् वीळ्व नर् वेंड वरतम्मेनि ॥ यून्नि यूळि दोरायत्ति विन यवतीर्थ मूवुलत्तोर । ताळु मप्पयर् तांडग मायिर् मुगत्तुडन् पडित्तारे ॥१२६६॥ अर्थ-सौधर्म इन्द्र आदि देव अपने शरीर में विक्रिया के बल से एक हजार पाठ भुजाए निर्माण कर उनमें रत्न कलशों को लेकर जिनेंद्र भगवान का अभिषेक करने लगे। उस अभिषेक को देखने वाले भव्य पुरुषों को ऐसा प्रतीत होता था, मानो मेरू पर्वत से कई नदियों का प्रवाह नीचे गिर रहा हो। वहां के देवों ने एक हजार मुख बना कर सहस्त्र जिह्वानों से भगवान की स्तुति की। स्तुति करने से उनके पापरूपी रज धुल गई ॥१२६६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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