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________________ मेरु मंदर पुराण [ २६३ कीचड से नहीं निकलते उसी प्रकार वह विचारता है कि मैं कर्मरूपी कीचड़ में फंसकर उससे उठकर ऊपर पाने की शक्ति न होने के कारण संसार रूपी कीचड में फंसकर महान दख को भोगने वाला हो गया हूँ। परन्तु मैंने उस कीचड से उठकर मैंने ऊपर आने का पुरुषार्थ नहीं किया। यह मेरी बडी भारी भूल है। पद्मनंदी प्राचार्य ने भी तत्व भावना में श्लोक ५ में लिखा है: "लब्ध्वा जन्म कुले शुचौ वरवपुर्बुध्वाश्रुतं पुण्यतो। वैराग्यं च करोति यः शुचितया लोके स एकः कृती॥ तेनेवोज्झितगौरवेण, यदि वा ध्यानामृतं पीयते । प्रासादे कलशस्तदा, मणिमयो हेमःसमारोपितः ।। पुण्य के उदय से पवित्र कुल में जन्म पाकर व उत्तम शरीर का लाभ कर जो कोई शास्त्र को समझ कर व वैराग्य को पाकर पवित्र तप करता है वही इस लोक में एक कृतार्थ पुरुष है । यदि वह तपस्वी होकर मद को छोडकर ध्यान रूपी अमृत का पान करता रहे तो मानो उसने स्वर्णमई महल के ऊपर मरिणमयी कलश ही चढा दिया है। अर्थात प्रात्मध्यानी ही सच्चे तपस्वी हैं और वे ही कर्मों को काटकर मोक्ष के अधिकारी होते हैं। पुनः विचार करने लगा कि दिनकर-करजाले शैत्यमुष्णत्वमिंदोः । सुर-शिखरिणि जातु प्राप्यते जंगमत्वम् ।। न पुनरिह कदाचिद् घोर-संसार-चक्र । स्फुटमसुखनिधाने, भ्राम्यता शर्म पुंसा ॥६८॥ (तत्व भावना) मिध्यादृष्टि हिरात्मा, आत्मज्ञान रहित ही जीव चारों गतिमई संसार के चक्कर में नित्य भ्रमण करता है । प्रज्ञानी को, संसार ही प्यारा है। वह संसार के भोगों का ही लोलुपी होता है। इसलिए वह गाढे कर्मों को बांधकर कभी दुख, कभी कुछ सांसारिक सुख उठाया करता है। उसको स्वप्न में भी आत्मिक सच्चे सख का लाभ नहीं है चार्य ने यहां तक कह दिया है कि असंभव बातें यदि हो जाय अर्थात् सूर्य की किरणें गरम होती हैं वे ठंडी हो जावे, व चंद्रमा में ठंडक होती है सो गर्मी मिलने लगे तथा सुमेरु पर्वत सदा स्थिर रहता है सो कदाचित् चलने लग जाय परन्तु मिथ्यादृष्टि जीव को कभी भी प्रात्मसुख नहीं मिल सकता है । इसलिये हमें उचित है कि मिथ्यात्व रूपी विष को उगलने का उद्यम करें और सम्यकदर्शन को प्राप्त करें। भेद विज्ञान को हासिल करें व मात्मा के विचार करने वाले हो जावें। इस ही उपाय से मुक्ति के अनन्त सुख का लाभ होता है। श्री पानंदि मुनि परमार्थ विंशति में कहते हैं दुःखव्यालसमाकुले भववने हिंसादिदोषदु मे। नित्यं दुर्गतिपल्लिपाति कुपये भ्राम्यति सर्वेगिनः ॥ तन्मध्ये सुगुरु-प्रकाशित-पये प्रारब्धमानो जनो। यात्यानंदकरं परं स्थिरतरं निर्वाणमेकं पुरं ॥१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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