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________________ मेह मंदर पुराण हो? तब मन्त्री ने जवाब दिया कि मैं रानीजी को एक ही दाव में जुया में जीत लूगा । इस बात को सुन कर रानी ने कहा कि प्रथम दाव में ही मैं इन से जीत लूगी। ऐसी मेरी शक्ति है। दोनों की बातें सुनकर राजा हंस कर चुप चाप बैठ गया। __ तदनंतर रामदत्तादेवी और सत्यघोष मन्त्री दोनों जुग्रा खेलने लगे। प्रथम दाव में ही महारानी ने उस मन्त्री की यज्ञोपवीत जीत ली। दूसरे दाव में उसकी नामांकित मुद्रिका को जीत लिया। तब मन्त्री दोनों दाव में हार कर दीर्घ श्वास लेता हुआ लज्जित होकर जुआ खेलना छोडने लगा। तत्पश्चात् रामदत्ता देवी ने अन्दर जाकर अपनी चतुर निपुणमति नाम की दासी को एकांत में बुलाकर कहा कि तुम मंत्री के महल पर जाकर इस यज्ञोपवीत व मुद्रिकां को उसके भण्डारी को जाकर बता देना और कहना कि वह रत्नों की पेटी मंत्रीजी ने मंगवाई है । तब उस दासी ने मंत्री के महल पर जाकर भण्डारी को जाकर वह यज्ञोपवीत और नामांकित मुद्रिका जाकर दिखाई और कहा कि भद्रमित्र की रत्नों की जो पेटी रखी हुई है वह मुझे शीघ्र दे दो, मंत्री जी ने मंगवाई है । और उसकी निशानी दी है । किसी को भी पता न लगे मुझे तुरन्त ही रत्नों की पेटी दे दो। तब उस भण्डारी ने मुद्रिका आदि को देखकर विश्वास करके रत्नों की पेटी उस दासी को दे दी। तत्पश्चात् उस निपुणमति ने रत्नों की पेटी लेकर वापस जाकर महारानी को दे दी और सारा बीता हुअा हाल सुना दिया। रामदत्ता देवी दासी पर अत्यंत प्रसन्न हुई और राजा के पास जाकर रत्नों की पेटी उनको दे दी। तब सिंहसेन राजा उस मन्त्री के प्रति क्रोधित होकर कहा कि यह महान कपटी व मायाचारी है। और उस.मंत्री को घर जाने की आज्ञा दे दी। राजा ने विचारा कि रत्नों की परीक्षा करना चाहिये और एक थाल मंगा कर पेटी के रत्न तथा उसमें और बढिया २ रत्न मिलाकर उस में रख दिए । और भद्रमित्र को बुलाकर कहा कि इन रत्नों में तुम्हारे कौन से रत्न हैं। वह निकाल लो । भद्रमित्र ने उन रत्नों में से अपने जो रत्न थे वह छांट कर निकाल लिये । तब राजा ने कहा कि सत्यघोष ने तुम्हारे रत्न लिये थे इसलिए इन रत्नों में जो रत्न सत्यघोष के हैं, तुम उनको भी ले लो तो भद्रमित्र ने जवाब दिया कि मुझे औरों के रत्न नहीं लेना है। मैं तो अपने ही रत्न ले रहा हूं । यदि सत्यघोष के रत्न मेरे पास आ जाय तो मुझे पाप लगेगा और नरक में जाना पडेगा और हमारे वंश का नाश हो जायगा। हमे औरों के रत्न नहीं चाहिये। मेरे पूर्व जन्म का अशुभ कर्म का उदय था। इस कारण इतने दिन तक मुझे कष्ट सहना पड़ा, अब आगे के लिये मुझे उसके प्रति कुछ करना नहीं। भद्रमित्र की यह बातें सुनकर सिंहसेन महाराज ने उसकी महान प्रशंसा की और उसको राज्यश्रेष्ठी का पद दे दिया। तत्पश्चात् राजा ने उस सत्यघोष को बुलाकर पूछा कि यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार की मायाचारी या चोरी करे तो उसको क्या दण्ड दिया जाना चाहिये ? तब मंत्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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