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________________ मेरु मंदर पुराण वासना छूट जाने से कोषादि तथा राग द्वषादि कषायों का बीज धीरे २ नष्ट हो जाता है । विषय वासना हटने से ज्ञानाभ्यास विषय, याकुलता हटने से शांति तथा तप रूपी श्रेष्ठ कार्य होने से पूजा सत्कार आदि मिलता है। जिन उत्तम गुणों के प्राप्त होने की अभिलाषा प्राण जाने पर भी मनुष्य उत्कंठा से रखता है, यह सभी गुरण तपस्वो को प्राप्त होते हैं। यह सभा लाभ साक्षात् जिसको प्राप्त हुए उसके लिए देखने व सुनने में यही पाता है कि कालांतर में इससे मोक्षपद की प्राप्ति भी होती है-जो जीव का सर्वोत्कृष्ट तथा अंतिम साधन हो सकता है । इस मोक्ष पद से अधिक जीव को और क्या साध्य हो सकता है, कि जहां पहुँचने से संसार संबंधी खेद, जन्म, मरगण, भय, रोग आदि २ सर्व क्लेश समूल नष्ट हो जाते हैं और संसार के दुखों का हमेशा के लिये नाश हो जाता है। जहां कर्मक्षय हो जाने के कारण प्रज्ञान तथा मोह वश होने वाले कर्मजन्य दुःखों से छुटकारा मिलता है, फिर उस जीव को दुःख कहां से हो सकता है ? मोक्ष प्राप्त होने के बाद दुख का निर्मूल नाश हो जाता है, इससे अधिक सुख संसार में कहीं नहीं है । दुख सब पराधीनता या विजातीय वस्तु के मेल से ही होता है। यह पराधीनता कर्म जन्य है । वह पराधीनता मोक्ष में नहीं रहती है फिर वहां दुख किस बात का होगा? ऐसो अत्रित्य मोक्षधाम की प्राप्ति इस तप से ही हो जाती है। बुद्धिमान् मनुस्य को चाहे प्रत्यक्ष फल न मिलने वाला हो परन्तु परिपाक में उत्तम फल मिलता दीखता हो तो ज्ञानो उसको अवश्य करता है, किन्तु अज्ञानी मनुष्य की इसकी विपरीत चाल होती है। चाहे परोक्ष में उसका फल मिलना सभव हो या न हो, परन्तु प्रत्यक्ष फल यदि मिलता हो तो मनुष्य उसे अवश्य करता है। यह तपश्चरण ऐसी वस्तु है, कि इसका फल परोक्ष भी है और प्रत्यक्ष भी है और वह इतना उत्कृष्ट है कि जिससे सर्व प्रकार के क्लेश नष्ट होकर सर्व शाश्वत आनन्द प्राप्त हो जाता है। अधिक क्या कहें, जिस मनुष्य ने तप के आनन्द का भोग नहीं किया, न जिसको इसका आनन्द है वे इसका लाभ नहीं ससझ सकते। जैसे भीलनी ने सच्चे मोतियों की कदर नहीं समझी । वह गजमोती बिखरे हुए जंगल में देखने पर भी उनकी कदर नहीं करती, न उनको छूती है । परंतु गुंजाफल को समेट २ कर उनके अनेक प्राभूषण बनाती है और उन को पहनकर अपने को धन्य मानती है। जो मोतियों की कदर करता है, वह ऐसा नहीं करेगा । अर्थात् गुंजाफल को नहीं पहनेगा। इस प्रकार जो मनुष्य इस तप के प्रानन्द को लुट चुके हैं, देख चुके हैं वे किसो प्रकार भी इद्रिय सुख तथा पर वस्तु में मग्न नहीं होते। यदि तप करते हुए शरीर नष्ट भी हो जाय तो कोइ परवाह नहीं करते। इस प्रकार दुर्धर तप करने वाले संजयंत मुनि सिह के समान शूरवीर एवं पराक्रमी थे। कर्म रूपी शत्रु उनसे दूर भागते थे ।।१४६।। वंदान् कुमदा वदी युमरीनर् सुवनं पर । कंदार् कयम बलिपिन् वैत्तनदिमूंड ॥ शंदार् शंड वेगेयु मायनायत्तिन् । ऐंदार सेंड़ोंडा तडात्तिनडुवाग ।।१५०।। अर्थ-तत्पश्चात् उस दुष्ट विद्युद्दष्ट्र ने उस संजयंत मुनि को हरिवती, स्वर्णवती, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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