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________________ -४८२ ] १२. धर्मानुप्रेक्षा ३७७ शालः कल्पद्रुमाणां सुपरिवृतिवनं स्तूपहर्म्यावली च, प्राकारः स्फाटिकोऽन्तर्नृसुरमुनिसभापीठिकाग्रे स्वयंभूः ॥' आदिदेवस्य द्वादशयोजन प्रमाणम्, अजितस्य सार्धैकादशयो जनप्रमाणम्, शम्भवस्यैकादशयोजनमानमित्यादिक्रमेण हीयमानं महावीरस्य योजनप्रमाणं समवसरणम्। तथा विदेहक्षेत्र स्थित श्री सीमंधरयुग्मंधरादीनां समवसरणं द्वादशयोजनप्रमाणम् । तत्र समवसरणस्य मध्ये तृतीयसिंहासनोपरि चतुरङ्गुलान्तरितं स्वयंभुवमर्हन्तं चिन्तयेत् । तद्यथा । " आर्हन्त्यमहिमोपेतं सर्वज्ञं परमेश्वरम् । ध्यायेदेवेन्द्र चन्द्रार्कस भान्तस्थं स्वयंभुवम् ॥ सर्वातिशयसंपूर्ण दिव्यलक्षणलक्षितम् । अनन्तमहिमाधारं सयोगिपरमेश्वरम् ॥ सप्तधातुविनिर्मुक्तं मोक्षलक्ष्मीकटाक्षितम् । सर्वभूतहितं देवं शीलशैलेन्द्रशेखरम् ॥” तथा । 'भामण्डलादियुक्तस्य शुद्धस्फाटिकमासिनः । चिन्तनं जिनरूपस्य रूपस्थं ध्येयमुच्यते ॥ चतुस्त्रिंशदतिशयोपेतमष्ट मह। प्रातिहार्यविराजितमनन्तज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयमण्डितं द्वादशगणोपेतं जिनरूपं चिन्तयेद्ध्यानी । तथा च । 'घणघाइकम्ममहणो अइसयवरपा डिहेरसंजुत्तो । झाएह- धवलवण्णो अरहंतो समवसरणत्थो ॥ रूवं झाणं दुविहं समयं तह परगयं च जं भणियं । सगयं 1 कलंकसे रहित चिन्तवन करे । फिर अपने शरीरमें स्थित आत्माको आठ कर्मोंसे रहित, अत्यन्त निर्मल पुरुषाकार चिन्तवन करे । इस प्रकार यह पिण्डस्थ ध्यानका वर्णन हुआ । अब रूपस्थ ध्यानको कहते हैं । ध्यानी पुरुषको समवसरण में स्थित जिनेन्द्र भगवानका चिन्तन करना चाहिये । समवसरण की रचना इस प्रकार होती है - सबसे प्रथम चारों दिशाओं में चार मानस्तम्भ होते हैं, मानस्तम्भोंके चारों ओर सरोवर होते हैं, फिर निर्मल जलसे भरी हुई खाई होती है, फिर पुष्पवाटिका होती है, उसके आगे पहला कोट होता है, उसके आगे दोनों ओर दो दो नाट्यशालाएँ होती हैं, उसके आगे दूसरा उपवन होता है, उसके आगे वेदिका होती है, फिर ध्वजाओंकी पंक्तियाँ होती हैं, फिर दूसरा कोट होता है, उसके आगे वेदिकासहित कल्पवृक्षोंका उपवन होता है, उसके बाद स्तूप और मकानों की पंक्ति होती है, फिर स्फटिकमणिका तीसरा कोट होता है, उसके भीतर मनुष्य, देव और मुनियोंकी बारह सभाएँ हैं । फिर पीठिका है, और पीठिकाके अग्रभागपर स्वयंभू भगवान विराजमान होते हैं । ऋषभ देवके समवसरणका प्रमाण बारह योजन था । अजितनाथके समवसरणका प्रमाण साढ़े ग्यारह योजन था । संभवनाथके समवसरणका प्रमाण ग्यारह योजन था । इस प्रकार क्रमसे घटते घटते महावीर भगवान के समवसरणका प्रमाण एक योजन था । तथा विदेह क्षेत्रमें स्थित श्री सीमंधर जुगमंधर आदि तीर्थङ्करोंके समवसरणका प्रमाण बारह योजन है । ऐसे समवसरण के मध्य में तीसरे सिंहासनके ऊपर चार अंगुल के अन्तरालसे विराजमान अर्हन्तका चिन्तन करे । लिखा भी है- 'अर्हन्तपदकी महिमासे युक्त, समस्त अतिशयोंसे सम्पूर्ण, दिव्य लक्षणोंसे शोभित, अनन्त महिमा के आधार, सयोगकेवली, परमेश्वर, सप्तधातुओंसे रहित, मोक्षरूपी लक्ष्मी कटाक्ष के लक्ष्य, सब प्राणियोंके हित, शीलरूपी पर्वतके शिखर, और देव, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य वगैरह की सभा के मध्य में स्थित स्वयंभू अर्हन्त भगवानका चिन्तन करना चाहिये । इस चौंतीस अतिशयोंसे युक्त, आठ महाप्रतिहार्योंसे शोभित और अनन्त ज्ञान आदि अनन्त चतुष्टयसे मण्डित तथा बारह सभाओं के बीचमें स्थित जिनरूपका ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है ।' और भी कहा है- 'घातिया कर्मोंसे रहित, अतिशय और प्रातिहार्योंसे युक्त, समवसरण में स्थित धवलवर्ण अरहंतका ध्यान करना चाहिये । रूपस्थ ध्यान दो प्रकारका होता है- एक स्वगत और एक और अर्हन्तका ध्यान करना परगत है । इस प्रकार परगत । आत्माका ध्यान करना खगत कार्त्तिके० ४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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