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________________ ३६८ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४८२अनादिकर्मबन्धनबद्धस्तत् क्षयान्मोक्षभागी इत्यादिनामस्थापनाद्रव्यभावनिर्देशादिसदादिप्रमाणनयनिक्षेपविषय इत्यादि जीवस्वभावानुचिन्तनं वा जीवा उपयोगमया अनाद्यनिधना मुक्तेतररूपा जीवस्वरूपचिन्तनं जीवविचयः तृतीय धर्म्यम् । ३। अजीवविचयं जीवभावविलक्षणानाम् अचेतनानां पुद्गलधर्माधर्माकाशद्रव्याणाम् अनन्तविकल्पपर्यायस्वभावानुचिन्तनं चतुर्थ धर्म्यम् । ४ । बिपाकविचयम् अष्टविधकर्माणि नामस्थापनाद्रव्यभावलक्षणानि मूलोत्तरोत्तरप्रकृतिविकल्पविस्तृतानि गुडखण्डसितामृतमधुरविपाकानि निम्बकाजीरविषहालाहलकटुकविपाकानि चतुर्विधबन्धानि लतादारुअस्थिशैलस्वभावानि कासु कासु गतियोनिषु अवस्थासु च जीवानां विषया भवन्ति उदयं गच्छन्ति विपाकविशेषानुचिन्तनं पञ्चमं धर्म्यम । ५ । विरागविचयं शरीरमिदमनित्यमपरित्राणं विनश्वरस्वभावमशुचि त्रिदोषाधिष्ठितं सप्तधातुमयं बहुमलमूत्रादिपरिपूर्णम् अनवरतनिष्यन्दितस्रोतोविलम् अतिबीभत्सम् आधेयम् शौचमपि पूतिगन्धि सम्यग्ज्ञानिजनवैराग्यहेतुभूतं नास्त्यत्र किंचित्कमनीयम् इन्द्रियमुख्यानि प्रमुखरसिकानि क्रियावसानविरसानि किंपाकपाकविपाकानि पराधीनानि अनवस्थानप्रचुरभाराणि यावत यावदेषां रामणीयकं तावत्तावद्धोगिनां तृष्णाप्रसंगोऽनवस्थः । यथाग्नेरिन्धनैर्जलनिधेर्नदीसहस्रेण न तृप्तिः तथा कस्याप्येतैः न तृप्तिरुपशान्तिश्च । ऐहिकामुत्रिकविनिपातहेतवः तानि देहिनः सुखानीति मन्यन्ते महादुःखकारणान्यनात्मनीनत्वादिष्टान्यप्यनिष्टानीति वैराग्यकारणविशेषानुचिन्तनम् । अथवा संसारदेहविषयेषु दुःखहेतुत्वानित्यचिन्तनं विरागचिन्तनं षष्ठं धर्म्यम् । ६ । भवविचयं सचित्ताचित्तमिश्रशीतोष्णमिश्रसंवृतविवृतमिश्रभेदासु योनिषु जरायुजाण्डजपोजीव सम्यग्दर्शन वगैरहसे विमुख हो रहे हैं इनका उद्धार कैसे हो इसका विचार करना उपायविचय धर्मध्यान है । जीवका लक्षण उपयोग है, द्रव्यदृष्टिसे जीव अनादि और अनन्त है, असंख्यात प्रदेशवाला है, अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मोंके फलको भोगता है, अपने शरीरके बराबर है, आत्मप्रदेशोंके संकोच और विस्तार धर्मवाला है, सूक्ष्म है, व्याघात रहित है, ऊपरको गमन करनेका खभाववाला है, अनादि कालसे कर्मबन्धनसे बँधा हुआ है, उसके क्षय होनेपर मुक्त हो जाता है, इस प्रकार जीवके मुक्त और संसारी स्वरूपका विचार करना जीवविचय नामक तीसरा धर्मध्यान है । जीवसे विलक्षण पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश इन अचेतन द्रव्योंकी अनन्त पर्यायोंके स्वरूपका चिन्तन करना अजीवविचय नामक चौथा धर्मध्यान है । आठों कमोंकी बहुतसी उत्तर प्रकृतियाँ हैं, उनमेंसे शुभ प्रकृतियोंका विपाक गुड़ खांड शक्कर और अमृतकी तरह मधुर होता है तथा अशुभ प्रकृतियोंका विपाक लता, दारु, अस्थि और शैलकी तरह कठोर होता है, कर्मबन्धके चार प्रकार हैं, किस किस गति और किस किस योनिमें जीवोंके किन २ प्रकृतियों का बन्ध, उदय वगैरह होता है, इस प्रकार कोंके विपाकका विचार करना विपाकविचय नामक पाँचवा धर्म ध्यान है । यह शरीर अनित्य है, अरक्षित है, नष्ट होनेवाला है, अशुचि है, वात पित्त और कफका आधार है सात धातुओंसे बना है, मलमूत्र वगैरहसे भरा हुआ है, इसके छिद्रोंसे सदा मल बहा करता है, अत्यन्त बीभत्स है, पवित्र वस्तुएँ भी इसके संसर्गसे दूषित होजाती हैं, सम्यग्ज्ञानी पुरुषोंके वैराग्यका कारण है, इसमें कुछ भी सुन्दर नहीं है, इसमें जो इन्द्रियाँ हैं वे भी किंपाक फलके समान उत्तरकालमें दुःखदायी हैं, पराधीन हैं, ज्यों ज्यों भोगी पुरुष इनसे भोग भोगता है त्यों त्यों इसकी भोगतृष्णा बढ़ती जाती है। जैसे ईन्धनसे अग्निकी और नदियोंसे समुद्रकी तृप्ति नहीं होती है वैसे ही इन इन्द्रियोंसे भी किसीकी तृप्ति नहीं होती । ये इन्द्रियाँ इसलोक और परलोकमें पतनकी कारण हैं, प्राणी इन्हें सुखका कारण मानता है, किन्तु वास्तवमें ये महादुःखकी कारण हैं, क्योंकि ये आत्माकी हितकारक नहीं है, इसप्रकार वैराग्यके कारणोंका चिन्तन करना विरागचिन्तन नामका छठा धर्मध्यान हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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