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________________ -४५३] १२. धर्मानुप्रेक्षा ३४३ ८ अव्वत्त ९ तस्सेवी १० ॥" आकम्पितमुपकरणादिदानेन गुरोरनुकम्पामुत्पाद्य आलोचयति । १ । अनुमानितं वचनेनानुमान्यं वा आलोचयति । २ । यदृष्टं यल्लोकैदृष्टं तदेवालोचयति । ३ । बादरं च स्थूलदोषमेवालोचयति । ४ । सूक्ष्मम् अल्पमेव दोषमालोचयति । ५। छन्नं केनचित्पुरुषेण निजदोषः प्रकाशितः भगवन् यादृशो दोषोऽनेन प्रकाशितस्तादृशो दोषो ममापि वर्तते इति प्रच्छन्नमालोचयति । ६ । शब्दाकुलं यथा भवत्येवं यथा गुरुरपि न शृणोति तादृशे कोलाहलमध्ये आलोचयति ।। बहुजनं बहून् गुरुजनान् प्रत्यालोचयति । ८ । अव्यक्तम् अव्यक्तस्य अप्रबुद्धस्य गुरोरग्रे आलोचयति ।९। तस्सेवी यो गुरुस्त दोष सेवते तदने आलोचयति । १०। ईदृविधमालोचनं यदि पुरुष आलोचयति तदा एको गुरुः एकः आलोचकः पुमान् स्त्री चेदालोचयति तदा चन्द्रसूर्यादिप्रकाशे एको गुरुः द्वे स्त्रियौ अथवा द्वौ गुरू एका स्त्रीति । प्रायश्चित्तमकुर्वतः पुंसः महदपि तपोऽभिप्रेतफलप्रदं न भवति ॥ अथ प्रायश्चित्तकरणे आचायमपृष्ट्वा आतापनादिकरणे आलोचना भवति, पुस्तकपिञ्छादिपरोपकरणग्रहणे आलोचना, परोक्षे प्रमादतः आचार्यादिवचनाकरणे आलोचना, आचार्यमपृष्ठाचार्यप्रयोजनेन गत्वा आगमनेन आलोचना, परसंघमपृष्ट्वा स्वसंघागमने आलोचना, देशकालनियमेन अवश्यकर्तव्यस्य व्रतविशेषस्य धर्मकथाप्रसंगेन विस्मरणे सति पुनः करणे आलोचना स्यात् । षडिन्द्रियेषु वचन भेंट करनेसे प्रसन्न होकर आचार्य मुझे थोड़ा प्रायश्चित्त देंगे ऐसा सोचकर आलोचना करना आकम्पित दोष है । गुरु थोड़ासा प्रायश्चित्त देकर मेरे ऊपर अनुग्रह करेंगे ऐसा अनुमान करके फिर आलोचना करना अनुमानित नामका दोष है । जो अपराध दूसरोंने देख लिया हो उसे तो कहे और जिस अपराधको करते हुए किसीने न देखा हो उसे न कहे, यह दृष्ट दोष है । स्थूल दोष तो कहे किन्तु सूक्ष्म दोषको न कहे, यह बादर दोष है । सूक्ष्म दोष ही कहे और स्थूल दोषको न कहे यह सूक्ष्म नामका दोष है । किसी साधुको अपना दोष कहते सुनकर आचार्यसे यह कहना कि 'भगवन् जैसा दोष इसने कहा है वैसाही दोष मेरा भी है' और अपने दोषको मुखसे न कहना प्रच्छन्न दोष है । कोई दूसरा न सुने इस अभिप्रायसे जब बहुत कोलाहल होरहा हो तब दोष को प्रकट करना शब्दाकुलित दोष है । अपने गुरुके सामने आलोचना करके पुनः अन्य गुरुके पास इस अभिप्रायसे आलोचना करना कि इस अपराधका प्रायश्चित्त ठीक है या नहीं, बहुजन नामा दोष है । जिस मुनिको आगमका ज्ञान नहीं है और जिसका चारित्र भी श्रेष्ठ नहीं है ऐसे मुनिके सामने आलोचना करना अव्यक्त नामका दोष है । जो गुरु स्वयं दोषी है उसके सामने अपने दोषोंकी आलोचना करना तत्सेवी नामक दोष है । इस प्रकार इन दोषोंसे रहित आलोचना करनेवाला यदि पुरुष हो तो एक गुरु और एक आलोचना करनेवाला पुरुष ये दो होना जरूरी हैं । और यदि आलोचना करनेवाली स्त्री हो तो चन्द्र सूर्य वगैरहके प्रकाशमें एक गुरु और दो स्त्रियाँ अथवा दो गुरु और एक स्त्री होना जरूरी है। जो साधु अपने दोषोंका प्रायश्चित्त नहीं करता उसकी बड़ी भारी तपस्या भी इष्ट फल दायक नहीं होती। यहाँ कुछ दोषोंका प्रायश्चित्त बतलाते हैं-पुस्तक पीछी आदि पराये उपकरणोंको लेलेने पर आलोचना प्रायश्चित्त होता है । प्रमादवश आचार्य वचनोंका पालन न करनेपर आलोचना प्रायश्चित्त होता है । आचार्यसे बिना पूछे आचार्यके कामसे जाकर लौट आनेपर आलोचना प्रायश्चित्त होता है । पर संघसे बिना पूछे अपने संघमें चले आनेपर आलोचना प्रायश्चित्त होता है। देश और कालके नियमसे अवश्य करने योग्य किसी विशेष व्रतको, धर्मकथामें लग जानेसे भूल जानेपर यदि बादको कर लिया हो तो आलोचना प्रायश्चित्त होता है । षट्कायके जीवोंके प्रति यदि कठोर वचन निकल गया हो तो प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त होता है । १ लम किमु बहुवं वा, (स बहुवं य), ग थोविं किमु बहुव वा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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