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________________ -४२४] १२. धर्मानुप्रेक्षा ३१९ जिण-सासण-माहप्पं बहु-विह-जुत्तीहि जो पयासेदि । तह तिव्वेण तवेण य पहावणा णिम्मला तस्स ॥ ४२३ ॥ [छाया-जिनशासनमाहात्म्यं बहुविधयुक्तिभिः यः प्रकाशयति । तथा तीवेण तपसा च प्रभावना निर्मला तस्य ॥] तस्य भव्यजनस्य प्रभावना प्रकर्षेण जिनशासनमाहात्म्यस्य भावना उत्साहेन प्रकटनं प्रभावनागुणो भवेत् । तस्य कस्य । यः भव्यः प्रकाशयति प्रकटयति । किम् । जिनशासनमाहात्म्यं जिनशासनस्य जिनधर्मस्य महिमानं प्रकटयति । कैः कृत्वा । बहविधयुक्तिमिः अनेकप्रकारविद्यविद्याकुशलत्वेन छन्दोऽलंकारव्याकरणसाहित्यतर्कागमाध्यात्मशास्त्रैश्च प्रकाशनैः समुद्दयोतनैः यात्राप्रतिष्ठाप्रासादोद्धरणजिनपूजानिर्मापणगीतनृत्यवादित्रकरणप्रमुखप्रकारैः च प्रकाशयति । तथा तीव्रण तपसा च तीव्रण दुःसाध्येन तपसा अनशनावमोदर्यादिकायक्लेशादिद्वादशविधतपश्चरणेन जिनशासनमुद्द्योतयतीत्यर्थः । तद्यथा । श्रावकेण दानपूजादिना तपोधनेन च तपःश्रुतादिना जैनशासनप्रभावना कर्तव्येति व्यवहारेण प्रभावनागुणो ज्ञातव्यः । निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारप्रभावनागुणस्य बलेन मिथ्यात्वविषयकषायप्रभृतिसमस्तविभावपरिणामरूपपरसमयानां प्रभावं हत्वा शुद्धोपयोगलक्षणस्वयंवेदनज्ञानेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजशुद्धात्मनः प्रकाशनमनुभवनमेव निश्चयप्रभावनेति ॥४२३॥ अथ निःशङ्कितादिगुणानामाधारभूतं पुरुषं निरूपयति जो ण कुणदि पर-तत्तिं पुणु पुर्ण भावेदि' सुद्धमप्पाणं । इंदिय-सुह-णिरवेक्खो' णिस्संकाई गुणा तस्स ॥ ४२४ ॥ [छाया-यः न करोति परतप्तिं पुनः पुनः भावयति शुद्धमात्मानम्। इन्द्रियसुखनिरपेक्षः निःशङ्कादयः गुणाः तस्य ॥1 तस्य भव्यवरपुण्डरीकस्य निःशङ्कायष्टगुणा भवन्ति । तस्य कस्य । यः पुमान् न करोति न विदधाति । काम् । परतत्ति परेषां निन्दा परदोषाभाषणं परापवादं न विदधाति न भाषते । तथा पुनः वारंवारं मुहुर्मुहुर्भावयति ध्यायति चिन्तयति प्रकाशित करता है, तथा अपने आत्माको भी ( दस प्रकारके धर्मसे ) प्रकाशित करता है उसके प्रभावना गुण होता है ॥ ४२२ ॥ अर्थ-जो सम्यग्दृष्टि अनेक प्रकारकी युक्तियोंके द्वारा तथा महान् दुर्द्धर तपके द्वारा जिन शासनका माहात्म्य प्रकाशित करता है उसके निर्मल प्रभावनागुण होता है । भावार्थ-अनेक प्रकारकी युक्तियोंके द्वारा मिथ्यावादियोंका निराकरण करके अथवा अनेक प्रकारके शास्त्रोंकी रचना करके या जिनपूजा, प्रतिष्ठा, यात्रा वगैरहका, आयोजन करके अथवा घोर तपश्चरण करके लोकमें जैन धर्मका महत्त्व प्रकट करना व्यवहारसे प्रभावनागुण है । और उसी व्यवहार प्रभावनागुणके बलसे मिथ्यात्व, विषयकषाय वगैरह समस्त विभाव परिणामोंके प्रभावको हटाकर शुद्धोपयोग रूप खसंवेदनके द्वारा विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वरूप अपनी आत्माका अनुभवन करना निश्चय प्रभावनागुण है ॥ ४२३ ॥ आगे बतलाते हैं कि निःशंकित आदि गुण किसके होते हैं ? अर्थ-जो पुरुष पराई निन्दा नहीं करता और वारंवार शुद्ध आत्माको भाता है तथा इन्द्रिय सुखकी इच्छा नहीं करता उसके निःशङ्कित आदि गुण होते हैं ॥ भावार्थ-यहाँ तीन विशेषण देकर यह बतलाया है कि जिसमें ये तीनों बातें होती हैं उसीमें निःशंकित आदि गुण पाये जाते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है-जो पुरुष दूसरोंकी निन्दा करता है उसके निर्विचिकित्सा, उपगूहन, स्थितिकरण और वात्सल्य नामके गुण नहीं हो सकते, क्यों कि बुरे अभिप्रायसे किसीके दोषोंको प्रकट करनेका नाम निन्दा है । अतः जो निन्दक है वह उक्त गुणोंका पालक कैसे हो सकता है ? तथा जो अपनी शुद्ध १ व तत्ती। २ म स पुण पुण (१)। ३ ब भावेइ । ४ म णिरविक्खो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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