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________________ ३०८ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४०६हिंसारंभो ण सुहो देव-णिमित्तं गुरूण कजेसु । हिंसा पावं ति मदो दया-पहाणो जदो धम्मो ॥ ४०६ ॥ [छाया-हिंसारम्भः न शुभः देवनिमित्तं गुरूणां कार्येषु । हिंसा पापं इति मतं दयाप्रधानः यतः धर्मः ॥] हिंसारम्भः हिंसायाः प्रारम्भः न शुभः न पुण्यं नापि श्रेष्ठः समीचीनो न भवति। किमर्थ हिंसारम्भः। देवनिमित्तं हरिहरहिरण्यगर्भचण्डिकाकालिकामहन्मायाक्षेत्रपालयक्षभूतपिशाचादिदेवार्थ तथा गुरूणां कार्येषु कर्तव्येषु संशयिभिर्यदुक्तं देवगुरुधर्मकार्येषु हिंसा न दोषाय । तथा चोक्तं तत्सूत्रे । 'देवगुरुधम्मकज्जे चूरिजइ चक्कवट्टिसेण्णं पि। जइ त कुणइ ण साहू अणंतसंसारिओ होइ ॥ संघस्स कारणेणं चूरिजइ चक्कवट्टिसेणं पि। जइ ण चूरइ मुणि सो अणंत संसारिओ होइ॥' तथा 'तुरगगणधरत्वं गर्भसंचाररामा स वसनपरिमुक्तो नायको तीर्थदेवः । पलमशनविधातुर्मन्दिरे भिक्षुचर्या समयगहनदातुर्मारणे नास्ति पापम् ॥' 'सेयंबरो वा दियंबरो वा अहवा बुद्धो य अण्णो वा। समभावभावियप्पा लहइ मोक्खं ण संदेहो बौद्धादीनां हिंसकानां मुक्तिः कथिता। तथा मधुमद्यामिषाहारादिकं कल्पे स्थापितम् । 'दुई १ दहियं २ णवणीयं ३ साप्पिं ४ तिल ५ गुडं ६ मजं ७ मंसं ८ महवं ९ इमाओ णवरसविगईओ अभिक्खणं २ आहारित्तये नो से कप्पइ बुद्धगिलाणस्स से वि य जा से वियर्ण परिपूरये नो चेव णं अपरिपूरये[१] । अत एते संशयिनः आचार्या नरकं गच्छन्तीत्याह। पंचवणं कोडीणं पंचावण्णाई सतसहस्साइ पंचसया बायाला आयरिया णरयं वजंति ५५५५००५४२ । एतत्सर्व तन्मतोतम् । इत्येतत्सूत्रेण देवार्थ गुरुकार्येषु हिंसारम्भो निराकृतः, यतः हिंसा पापं इति जीववधसंकल्पं पापमिति धर्मः यतिधर्मः दयाप्रधानो मतः कथितः षट्जीवनिकायरक्षापरः यतिधर्मः प्रतिपादितोऽस्ति । तथा प्रकारान्तरेण अस्याः गाथाया व्याख्यान वही धर्म है । वह धर्म उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य इन दश लक्षण रूप है। धर्मके येही दस लक्षण है| जहाँ थोड़ीसी भी हिंसा है वहाँ धर्म नहीं है ॥ ४०५ ॥ आगे तीन गाथाओंसे हिंसाका निषेध करते हैं । अर्थ-चूंकि हिंसाको पाप कहा है और धर्मको दयाप्रधान कहा है, अतः देवके निमित्तसे अथवा गुरुके कार्यके निमित्तसे भी हिंसा करना अच्छा नहीं है । भावार्थ-जैनधर्मके सिवाय प्रायः सभी अन्य धर्मोमें हिंसामें धर्म माना गया है । एक समय भारतमें यज्ञोंका बड़ा जोर था और उसमें हाथी घोड़े और बैलोंको ही नहीं मनुष्य तक होमा जाता था । वे यज्ञ गजमेध, अश्वमेध, गोमेध और नरमेधके नामसे ख्यात थे। जैनधर्मके प्रभावसे वे यज्ञ तो समाप्त होगये । किन्तु देवी देवताओंके सामने बकरों, भैंसों, मुर्गों वगैरहका बलिदान आज भी होता है । यह सब अधर्म है, किसी की जान ले लेनेसे धर्म नहीं होता । किन्हीं सूत्रग्रन्थों में ऐसा लिखा है कि देव गुरु और धर्मके लिये चक्रवर्तीकी सेनाको भी मार डालना चाहिये । जो साधु ऐसा नहीं करता वह अनन्त काल तक संसारमें भ्रमण करता है । कहीं मांसाहारका मी विधान किया है। ग्रन्थकारने उक्त गाथाके द्वारा इन सब प्रकारकी हिंसाओंका निषेध किया है। उनका कहना है कि धर्मके नाम पर की जानेवाली हिंसा भी शुभ नहीं है । अथवा इस गाथाका दूसरा व्याख्यान इस तरह भी है कि देवपूजा, चैत्यालय, संघ और यात्रा वगैरह के लिये मुनियोंका आरम्भ करना ठीक नहीं है । तथा गुरुओंके लिये वसतिका बनवाना, भोजन बनाना, सचित्त जल फल धान्य वगैरहका प्रासुक करना आदि आरम्भ भी मुनियोंके लिये उचित नहीं है, क्यों कि ये सब आरम्भ हिंसाके कारण हैं । वसु १ 'गर्भसंसार' इत्यपि पाठः पुस्तकान्तरे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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