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________________ ३०२ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३९९ प्रापयतीति अक्षम्रक्षणमिति च नाम प्रसिद्धम् २ । यथा भाण्डागारे समुत्थितं वैश्वानरं अशुचिना शुचिना वा पानीयेन प्रशमयति गृही तथा यथालब्धेन यतिरप्युदराग्निं सरसेन विरसेन वाहारेण प्रशमयतीत्युदराभिप्रशमनमिति च निरुच्यते ३ । दातृजनबाधया विना कुशलो मुनिभ्रमरवदाहरतीति भ्रमराहार इत्यपि परिभाष्यते ४ । येन केनचित् कृतचारेण श्वभ्रपूरणवदुदरगर्तमनगारः पूरयति खादुना निःखादुना वाहारेणोदरगर्तपूरणमिति श्वभ्रपूरणं च मिगद्यते ५ । प्रतिष्ठापनशुद्धिपरः संयतो नखरोमसिंघाणक श्लेष्मनिष्ठीवन शुक्र मलमूत्रत्यजने देहपरित्यागे च ज्ञातप्रदेशकालो जन्तुपीडां बाधा विना प्रयतते ६ । संयतेन शयनासनशुद्धिपरेण स्त्रीदुष्टजीवनपुंसकचोरमद्यपायिकल्पपालद्यूतकार पक्षिवधकनी चलोकादिपापजनावासा वर्ज्याः, शृङ्गारविकारभूषणोज्वल वेषवेश्या क्रीडाभिरामगीतनृत्यवादित्राकुलप्रदेशा विकृताङ्गगुह्यदर्शन काष्ठमयालेख्यहास्योपभोग महोत्सववाहनद मनायुधव्यायामभूमयश्व रागकारणानीन्द्रियगोचर विषया मदमानशोकको पसंक्लेशस्थानादयश्च परिहर्तव्याः, अकृत्रिमा गिरिगुहातरुकोटरादयः कृत्रिमात्र शून्यागारादयो मुक्तमोचितावासाः अनात्मोद्देशनिष्पन्ना निरारम्भाः सेव्याः । तत्र संयतस्य त्रिविधो निवासः स्थानमासनं शयनं चेति । पादौ चतुरकुलान्तरे प्रस्थाप्य अधस्तिर्यगूर्ध्वान्यतममुखो भूत्वा यत्रात्मभावो यथावत्स्वभावः यथात्मबलवीर्यसदृशः कर्मक्षयप्रयोजनः असंश्लिष्टमतिस्तिष्ठेत्, अथ न शक्नुयात् निष्प्रतिज्ञातः पर्यङ्कादिभिरासनैरासीत यद्यपरिमितकालयोगः खिन्नो वा एकपार्श्वबाहुप्रलम्बनसंवृताङ्गादिभिरल्पकालं श्रमपरिहारार्थ शयीत ७ । वाक्यशुद्धिः पृथिवीकायिकाद्यारम्भप्रेरणरहिता युद्धकामकर्कशसंभिन्नालापपैशून्य परुषनिष्ठुरादिपर पीडाकर प्रयोगनिरुत्सुका स्त्रोभक्तराष्ट्रावनिपालाश्रितकथाविमुखा व्रतशीलदेशनादिप्रदानफला स्वपर हितमितमधुरमनोहरा परमवैराग्यहेतुभूता परिहृतपरात्मनिन्दाप्रशंसा संयतस्य योग्या तदधिष्ठानाः सर्वसंपद इति ८ 1 1 'उदराग्नि प्रशमन' भी कहते हैं । जैसे भौंरा फूलको हानि न पहुँचाकर उससे मधु ग्रहण करता है वैसे ही मुनि भी दाता जनोंको कुछभी कष्ट न पहुँचाकर आहार ग्रहण करते हैं । इस लिये इसे भ्रमराहार या भ्रामरी वृत्ति भी कहते हैं । जैसे गड्ढेको जिस किसीभी तरह भरा जाता है वैसेही मुनि अप पेटके गड्ढेको स्वादिष्ट अथवा बिना स्वादवाले भोजनसे जैसे तैसे भर लेता है । इससे इसे श्वभ्रपूरण भी कहते हैं । इस प्रकार भिक्षा शुद्धि जानना । प्रतिष्ठापन शुद्धि में तत्पर मुनि देश कालको जानकर नख, रोम, नाकका मल, थूक, मल, मूत्र आदिका त्याग देश कालको जानकर इस प्रकार करता है, जिससे किसी प्राणीको बाधा न हो । यह प्रतिष्ठापन शुद्धि है । शयनासन शुद्धिमें तत्पर मुनिको ऐसे स्थानोंमें शयन नहीं करना चाहिये और न रहना चाहिये जहाँ स्त्री, दुष्टजीव, नपुंसक, चोर, शराबी, जुआरी, हिंसक आदि पापी जन रहते हों, वेश्याएं गातीं नाचतीं हों, अश्लील चित्र अंकित हों, हंसी मजा होता हो या विवाह आदिका आयोजन हो । इस प्रकार जहाँ रागके कारण हों, वहाँ साधुको नहीं रहना चाहिये । पहाड़ोंकी अकृत्रिम गुफाओं और वृक्षोंके खोखलोंमें तथा कृत्रिम शून्य मकानोंमें अथवा दूसरोंके द्वारा छोडे हुए मकानोंमें, जो अपने उद्देश्यसे न बनाये गये हों, उनमें मुनिको निवास करना उचित है । मुनिके निवासके तीन प्रकार हैं-खडे रहना, बैठना और सोना । दोनों पैरोंके बीचमें चार अंगुलका अन्तर रख कर, मुखको अवनत, उन्नत अथवा तिर्यग् करके अपने बल और वीर्यके अनुसार मुनिको खडे होकर ध्यान करना चाहिये । यदि खड़ा रहना शक्य न हो तो पर्यङ्क आदि आसन लगा कर बैठे । यदि थकान मालूम हो तो उसे दूर करनेके लिये शरीरको सीधा करके एक I करवट से शयन करे । यह शयनासन शुद्धि है । पृथिवी कायिक आदि जीवोंकी जिसमें विराधना होती हो, ऐसे आरम्भोंकी प्रेरणासे रहित वचन मुनिको बोलना चाहिये, जिससे दूसरेको पीड़ा पहुँचे ऐसे कठोर वचन नहीं बोलना चाहिये । स्त्री, भोजन, देश और राजाकी कथा नहीं करनी चाहिये । व्रत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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