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________________ २७६ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३७७पुनः पूजन विधिं कृत्वा जिननपनाष्टधार्चनविधि कृत्वा विधाय, ततः पुनः णवरि विशेषेण त्रिविधपात्रं गृहीत्वा जघन्यमध्यमोत्कृष्टपात्रं सम्यग्दृष्टिश्रावकमुनीश्वरलक्षणं नवरि सप्तदातृगुणनवविधपुण्योपार्जनविशेषेण गृहीत्वा गृहागतं पात्रं प्रतिगृह्य भोजयित्वा भोजनं कारयित्वा, त्रिविधपात्रेभ्य आहारदानं दत्त्वा इत्यर्थः । ततः पश्चात् भोजनपारणां कुर्वन् प्रोषधो भवति प्रोषधव्रतधारी स्यात् । सप्तम्यास्त्रयोदश्याश्च दिवसे मध्याहे भुक्त्वा उत्कृष्टप्रोषधव्रती चैत्यालये गत्वा प्रोषधं गृह्णाति, मध्यमप्रोषधव्रती तत्संध्यायां प्रोषधं गृह्णाति, जघन्यप्रोषधव्रती अष्टमीचतुर्दशीप्रभाते प्रोषधं गृह्णाति ॥ ३७३-७६ ॥ अथ प्रोषधमाहात्म्य गाथाद्वयेनाह एक पि णिरारंभ उववासं जो करेदि उवसंतो। बहु-भव-संचिय-कम्मं सो गाणी खंवदि लीलाए ॥ ३७७ ॥ [छाया-एकम् अपि निरारम्भ उपवासं यः करोति उपशान्तः। बहुभवसंचितकर्म स ज्ञानी क्षपति लीलया ॥] स ज्ञानी भेदज्ञानी विवेकवान् प्रोषधव्रती पुमान् बहुभवसंचितकर्म क्षपयति बहुभवेषु अनेकभवेषु बहजम्मस संचितमपार्जितं यत्कर्म ज्ञानावरणादिकं क्षयं नयति । कया। लीलया क्रीडया सुखेन प्रयासं विना । स कः । यः करोति विदधाति । कम् । एकमपि अद्वितीयमपि, अपिशब्दात् अनेकमपि, उपवासं प्रोषधं प्रोषधोपवासं करोति । कीदृक्षम् । निरारम्भ गृहव्यापारक्रयविक्रयादिसावद्यरहितम् । उक्तं च । 'कषायविषयाहारत्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः शेषं लंघनक विदुः ॥ ३७७ ॥ उववासं कुबंतो औरंभं जो करेदि मोहादो। सो णिय-देहं सोसदि ण झाडए कम्म-लेसं पि ॥ ३७८ ॥ [छाया-उपवासं कुर्वन् आरम्भं यः करोति मोहात् । स निजदेहं शोषयति न शातयति कर्मलेशम् अपि ॥] स प्रोषधोपवासं कुर्वन् शुष्यति कृशतां नयति । कम् । निजदेहं खशरीर कृशीकरोति, न झाडए नोज्झति न जीर्यते न भक्ति पूर्वक उन्हें भोजन कराता है । उसके बाद स्वयं भोजन करता है । यह प्रोषध प्रतिमाके धारक श्रावककी विधि है । इसमें इतना विशेष है कि उत्कृष्ट प्रोषधव्रती सप्तमी और तेरसके दिन मध्याहमें भोजन करके चैत्यालयमें जाकर प्रोषधको स्वीकार करता है । मध्यम प्रोषधव्रती सप्तमी और तेरसकी सन्ध्याके समय प्रोषध ग्रहण करता है और जघन्य प्रोषधव्रती अष्टमी और चतुर्दशीके प्रभातमें प्रोषध ग्रहण करता है । ३७३३७६ ॥ आगे दो गाथाओंसे प्रोषधका माहात्म्य बतलाते हैं । अर्थ-जो ज्ञानी आरम्भको त्यागकर उपशमभावपूर्वक एकभी उपवास करता है वह बहुत भवोंमें संचित किये हुए कर्मको लीलामात्रमें क्षय कर देता है । भावार्थ-कषाय और विषय रूपी आहारको त्यागकर तथा इसलोक और परलोकके भोगोंकी आशा छोड़कर जो एक भी उपवास करता है वह भेदज्ञानी विवेकी पुरुष भव भवमें संचित कर्मोंको अनायास ही क्षय करदेता है, क्यों कि वही उपवास सच्चा उपवास है जिसमें कषाय और विषयरूपी आहारका त्याग किया जाता है। भोजन मात्रका छोड़ देना तो उपवास नहीं है, लंघन है। ऐसे एक उपवाससे भी जब भव भवमें संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं तब जो प्रोषध प्रतिमा लेकर प्रत्येक पक्षमें दो उपवास करता है, उसका तो कहना ही क्या है ? ॥ ३७७ ॥ अर्थ-जो उपवास करते हुए मोहवश आरम्भ करता है वह अपने शरीरको सुखाता है उसके लेशमात्र भी कर्मोंकी निर्जरा नहीं होती ।। भावार्थ-जो प्रोषध प्रतिमाधारी अष्टमी और चतुर्दशीको उपवास ग्रहण करके भी मोहमें पड़कर घर १ व खवदि, ग खविद। २ ग आरंभो। ३ व झाडइ ४ व पोसह । सञ्चित्तं इत्यादि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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