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________________ २७४ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३७३कर्मविपाकं ध्यायति, कर्मणां ज्ञानावरणादीनां विपाकः उदयः, शुभप्रकृतीनां विपाकः उदयः गुडखण्डशर्करामृतरूपः अशुभ प्रकृतीनाम् उदयः निम्बकाञ्जीरविषहालाहलरूपः, तं ध्यायति चिन्तयति । श्रीवसुनन्दिसिद्धान्तिना तथा चोक्तं च । "होऊण सुई चेइयगिहम्मि सगिदे व चेइयाहिमुहो । अण्णत्थ सुइपए से पुव्वमुहो उत्तरमुहो वा ॥ १ ॥ जिणवयण १ धम्म २ चेइय ३ परमेट्ठि ४ जिणालयाण ५ णिच्च पि । जं वंदणं तियालं कीरइ सामाइयं तं खु ॥ २ ॥ काउसग्गहि ठिदो लाहालाहं च सत्तुमित्तं च । संजोगविप्पजोगं तिणकंचण चंदणं वासं ॥ ३ ॥ जो पस्सइ समभावं मणम्हि सरिदूण पंचणवकारं । वरअट्ठपाडिहेरेहिं संजुदं जिणसरूवं वा ॥ ४ ॥ सिद्धसरूवं झायदि अहवा झाणुत्तमं ससंवेयं । खणमेकमविचलंगो उत्तमसामाइयं तस्स ॥ ५ ॥” तथा “तिविहं तियरणसुद्धं मयरहियं दुविहठाणपुणरुतं । विणएण कमविसुद्धं किदियम्मं होदि कायव्वं ॥ किदिकम्मं पि करंतो ण होदि किदिकम्मणिजराभागी । बत्तीसाणण्णदर साहू ठाणं विराहंतो ॥ २ ॥” इति सामायिकप्रतिमा, चतुर्थो धर्मः ४ ॥ ३७१-२ ॥ अथ प्रोषधप्रतिमाधर्म गाथाषङ्केनाह 1 सत्तमि'- तेरसि-दिवसे अवरण्हे जाइऊणे जिण-भवणे । किच्चा किरिया - कम्मं उववासं चडविहं गहिये ॥ ३७३ ॥ गिह-वावारं चत्ता रतिं गमिऊण धम्म-चिंताएँ । पच्चूसे उट्ठत्ता किरिया - कम्मं च काढूर्णं ।। ३७४ ॥ सत्यभासेण पुणो दिवसं गमिऊण वंदणं किच्चा । रत्तिंदूर्ण तहा पच्चूसे वंदणं किच्चा || ३७५ || पुज्जेण - विहिं च किया पत्तं गहिऊण णंवरि ति विहं पि । भुंजविऊण पत्तं भुजंतो पोसहो होदि ॥ ३७६ ॥ 1 होता है और अशुभ प्रकृतियोंका उदय नीम, कांजीर, विष और हलाहल विषकी तरह होता है । इसे ही विपाक विचय धर्मध्यान कहते हैं । आचार्य वसुनन्दि सैद्धान्तिकने भी कहा है- " जो शुद्ध होकर जिन मन्दिरमें अथवा अपने घर में, अथवा किसी अन्य पवित्र स्थानमें जिनबिम्ब के सन्मुख या पूर्वदिशा अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख करके सदा त्रिकाल जिनवचन, जिनधर्म, जिनबिम्ब, परमेष्ठी और जिनालयकी वन्दना करता है वह निश्चयसे सामायिकको करता है ॥ तथा जो कायोत्सर्गसे स्थित होकर लाभ अलाभ, शत्रु मित्र, संयोग वियोग, तृण कांचन, चन्दन और विसौलाको समभावसे देखता है । तथा मनमें पंच नमस्कारको धारण करके आठ उत्तम प्रातिहार्यों से युक्त जिन भगवान् के स्वरूपका अथवा सिद्धस्वरूपका ध्यान करता है, अथवा एक क्षणके लिये भी निश्चल अंग होकर आत्मखरूपका ध्यान करता है वह उत्तम सामायिकका धारी है ।" और भी कहा है- " मन वचन और कायको शुद्ध करके, मद रहित होकर विनय पूर्वक क्रमानुसार कृतिकर्म करना चाहिये । वह कृति - कर्म दो नमस्कार, बारह आवर्त तथा चार प्रणामके भेदसे तीन प्रकारका है और पर्यङ्कासन अथवा खड्गासन ये दो उसके आसन हैं | किन्तु यदि साधु बत्तीस दोषोंका निवारण करके कृतिकर्म नहीं करता तो कृतिकर्म करते हुए भी वह कृतिकर्मसे होनेवाली निर्जराका भागी नहीं होता ||" इस प्रकार सामायिक प्रतिमाका वर्णन समाप्त हुआ || ३७१-७२ ॥ आगे छः गाथाओंसे प्रोषध प्रतिमाको कहते १ व सत्तम । २ स जायऊण । ३ख म सग किरिया कम्मं काऊ ( उं ? ), ब किश्वा किरिया । ४ सर्वत्र तु उन्हं । ५ बंग गहियं । ६ ब चिंताह । ७ व काऊ । ८ व णेण । ९ व पूजण । म तह य । १० रा भुजाविऊण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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