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________________ -३५९ ] १२. धर्मानुप्रेक्षा २६१ प्रोषधाख्यं भवेत् । तस्य कस्य । यः द्वयोः पर्वणोः पर्वण्योः अष्टम्यां चतुर्दश्यां च सदा पक्ष पक्षं प्रति उपवासं स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दलक्षणेषु पञ्चसु विषयेषु परिहृतौत्सुक्यानि पश्चापि इन्द्रियाणि उपेत्य आगत्य तस्मिन् उपवासे वसन्ति इत्युपवासः, अशनपानखाद्य लेह्यलक्षणश्चतुर्विधाहारपरिहार इत्यर्थः । उक्तं च उपवासस्य लक्षणम् । " कषायविषयाहारत्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः शेषं लङ्घनकं विदुः ॥” इति तम् उपवासं क्षपणाम् अनशनं करोति विदधाति । तच्छक्त्यभावे एकभक्तम् एकवारभोजनं करोति । तथा निर्विकृतिं शुद्धतः शुद्धैकान्नभोजनं करोति, वा दुग्धादिपञ्चरसादिरहितम् आहारं भुङ्क्ते । उक्तं च । “आहारो भुज्यते दुग्धादिकपञ्चरसातिगः । दमनायाक्षशत्रूणां यः सा निर्विकृतिर्मता ॥” इति एवमुक्तप्रकारेणादिशब्दात् आचाम्लकाञ्जिकाहाररूक्षाहारं मनश्चिन्त्यप्रमुखं करोति । “सदुष्णे काञ्जिके शुद्धमालाव्य भुज्यतेऽशनम् । जितेन्द्रियैस्तपोऽर्थं यदाचाम्ल उच्यतेऽत्र सः ॥” शुद्धोदनं जलेन मह भोजनं कांजिकाहारम् । तस्य कस्य । यः प्रोषधोपवासव्रती परिहरति निषेधयति त्यजति । कान् । स्नानविलेपन भूषण स्त्रीसंसर्गगन्धधूपप्रदीपादीन्, स्नानं शीतोष्णजलेन मज्जनं तैलादिमर्दनं कर्कोटिकादिकेन स्फेटनम् विलेपनं चन्दनकर्पूरकुक्कु माग रुकस्तूरिकादिभिर्विलेपनं शरीरविलेपनम्, भूषणं हारमुकुटकुण्डलकेयूर कटकमुद्रिकाद्याभरणम्, स्त्रीसंसर्गः स्त्रीणां युवतीनां मैथुनस्पर्शनपादसंवाहननिरीक्षणशयनौपवेशनवार्तादिभिः संसर्गः संयोगः स्पर्शनम्, गन्धः सुगन्धः पुष्पसुगन्धचूर्णागरुरसप्रमुखः, धूपः शरीरधूपनं केशवस्त्रादिधूपनं च दीपस्य ज्वलनं ज्वालनकरणं च द्वन्द्वसमासः त एवादिर्येषां ते तथोक्तास्तान् । आदिशब्दात् सचित्तजलकणलवणभूम्यग्भिवातकरणवनस्पतितत्फलपुष्पकुब्धलच्छेदादिव्यापारान् परिहरति । कीदृक्षः । ज्ञानी मेदज्ञानी खपरविवेचनविज्ञानी । किं कृत्वा । वैराग्याभरणभूषणं कृत्वा भवाङ्गभोगविरक्त्याभरणेनात्मानं भूषयित्वा निरारम्भः 1 करना चाहिये, हार मुकुट कुण्डल, केयूर, कड़े, अगूंठी आदि आभूषण नहीं पहनने चाहिये, स्त्रियोंके साथ मैथुन नहीं करना चाहिये और न उनका आलिंगन करना चाहिये, न उनसे पैर वगैरह दबवाना चाहिये, न उन्हें ताकना चाहिये, न उनके साथ सोना या उठना बैठना चाहिये, सुगन्धित पुष्प चूर्ण वगैरहका सेवन नहीं करना चहिये, न शरीर वस्त्र वगैरहको सुवासित धूपसे सुवासित करना चाहिये और न दीपक वगैरह जलाना चाहिये । भूमि, जल, अग्नि वगैरह को खोदना, जलाना बुझाना आदि कार्य नहीं करने चाहिये और न वनस्पति वगैरहका छेदन भेदन आदि करना चाहिये । संसार शरीर और भोगसे विरक्तिको ही अपना आभूषण बनाकर साधुओंके निवासस्थानपर, चैत्यालयमें अथवा अपने उपवासगृहमें जाकर धर्मका सुनने सुनाने में मनको लगाना चाहिये । ऐसे श्रात्रकको प्रोषधोपवासव्रती कहते हैं । आचार्य समन्तभद्रने भी लिखा है- 'चतुर्दशी और अष्टमीके दिन सदा स्वेच्छापूर्वक चारों प्रकारके आहारका त्याग करना प्रोषधोपवास है । उपवासके दिन पाँचों पापोंका, अलंकार, आरम्भ, गन्ध, पुष्प, स्नान, अंजन और नास लेनेका त्याग करना चाहिये । कानोंसे बड़ी चाहके साथ धर्मरूपी अमृतका स्वयं पान करना चाहिये और दूसरोंको पान कराना चाहिये । तथा आलस्य छोड़कर ज्ञान और ध्यान में तत्पर रहना चाहिये । चारों प्रकारके आहारके छोड़नेको उपवास कहते हैं, और एक बार भोजन करनेको प्रोषध कहते हैं । अष्टमी और चतुर्दशीको उपवास करके नौमी और पंद्रसको एक बार भोजन करना प्रोषधोपवास है । इस प्रोषधोपवास व्रतके पाँच अतिचार हैं-भूखसे पीड़ित होनेके कारण 'जन्तु हैं या नहीं' यह देखे बिना और मृदु उपकरणसे साफ किये बिना पूजा के उपकरण तथा अपने पहिरने के वस्त्र आदिको उठाना, बिना देखी बिना साफ की हुई जमीनमें मलमूत्र करना, बिना देखी बिना साफ की हुई भूमिमें चटाई वगैरह बिछाना, भूखसे पीड़ित होनेके कारण आवश्यक छः कर्मों में अनादर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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