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________________ -३०९] १२. धर्मानुप्रेक्षा निर्जराकारणं भवति। "दंसणमोहे खविदे सिज्झदि एकेव तदियतुरियभवे। णादिक्कमदि तुरियभवं ण विणस्सदि सेससम्व ॥२॥" दर्शनमोहे क्षपिते सति तस्मिन्नेव भवे वा तृतीयभवे वा चतुर्थभवे कर्मक्षयं करोति, चतुर्थभवं नातिकामति । शेषसम्यक्त्ववन्न विनश्यति । तेन नित्यं साद्यक्षयानन्तमित्यर्थः । “दंसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजादो हु । मणुसो केवलिमूले णिटुवगो होदि सव्वत्थ ॥ ३ ॥" दर्शनमोहक्षपणाप्रारम्भकः कर्मभूमिज एव सोऽपि मनुष्य एव तथापि केवलिपादमूले एव भवति । निष्ठापकस्तु सर्वत्र चतुर्गतिषु भवति इति ॥ ३०८ ॥ अथ वेदकसम्यक्त्वं निरूपयति अणउदयादो छण्हं सजाइ-रूवेण उदयमाणाणं । सम्मत्त-कम्म-उदये खयउवसमियं हवे सम्मं ॥ ३०९॥ [छाया-अनुदयात् षण्णां खजातिरूपेण उदयमानानाम् । सम्यक्त्वकर्म उदये क्षायोपशमिकं भवेत् सम्यक्त्वम् ॥1 भवेत् । किं तत् । क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वं सर्वघातिस्पर्धकानामुदयाभावलक्षणः क्षयः तेषां सदवस्थालक्षणः उपशमः स्पर्धकानाम् उदयथ अनुक्तोऽपि गृह्यते, क्षयथासावुपशमश्च क्षयोपशमः, तत्र भवं क्षायोपशमिकम् । वेदकसम्यत्वमपरं नाम स्यात् । क्व सति । छण्हं षण्णाम् अनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभमिथ्यात्वसम्यम्मिथ्यात्वप्रकृतीनाम् अनुदयात् उदयाभावात् सद्रूपोपशमात् अप्रशस्तरूपेण विषहालाहलादिरूपेग अथ दारुबहुभागशिलास्थिरूपेणोदयाभावात् । कीहक्षाणां प्रकृतीनाम् । स्वजातिरूपेण उदयमानानाम् अनन्तानुबन्धीनां विसंयोजनेन अप्रत्याख्यनादिरूपविधानेन मिथ्यात्वस्य च सम्यक्त्वरूपेण च उदयमानानाम् उदीयमानानाम् उदयं प्राप्तानाम् । व सति । सम्यक्त्वकर्मोदये सम्यक्त्वप्रकृतेहै । यदि कदाचित् पूर्ण क्षय होनेसे पहले ही मरण हो जाता है तो उसकी समाप्ति चारों गतियों से किसी भी गतिमें हो सकती है ॥ इन दोनों सम्यक्त्वोंके विषयमें इतना विशेष ज्ञातव्य है कि निर्मलता की अपेक्षा उपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्वमें कोई अन्तर नहीं है; क्यों कि प्रतिपक्षी कर्मोंका उदय दोनोंहीमें नहीं है । किन्तु फिरभी विशेषता यह है कि क्षायिक सम्यक्त्वमें प्रतिपक्षी कोंका सर्वथा अभाव हो जाता है और उपशम सम्यक्त्वमें प्रतिपक्षी कर्मोंकी सत्ता रहती है। जैसे निर्मली आदि डालनेसे गदला जल ऊपरसे निर्मल हो जाता है किन्तु उसके नीचे कीचड़ जमी रहती है । और किसी जलके नीचे कीचड़ रहती ही नहीं । ये दोनों जल निर्मलताकी अपेक्षा समान हैं। किन्तु एकके नीचे कीचड़ है इससे वह पुनः गदला हो सकता है, किन्तु दूसरेके पुनः गदला होनेकी कोई संभावना नहीं है ॥ ३०८ ॥ अब वेदक सम्यक्त्वका खरूप कहते हैं । अर्थ-पूर्वोक्त सात प्रकृतियोंमेंसे छ: प्रकृतियोंका उदय न होने तथा समानजातीय प्रकृतियोंके रूपमें उदय होनेपर और सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयमें क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है ॥ भावार्थ-सर्वघाति स्पर्द्धकोंका उदयाभावरूप क्षय और उन्हींका सदवस्थारूप उपशम होनेपर तथा देशघाति स्पर्द्धकोंका उदय होनेपर क्षायोपशमिक भाव होता है । क्षय और उपशमको क्षयोपशम कहते हैं और क्षयोपशमसे जो हो वह क्षायोपशमिक है । क्षायोपशमिक सम्यक्त्वको ही वेदक सम्यक्त्व कहते हैं । अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ, मिथ्यात्व और सम्यमिथ्यात्व, इन छः प्रकृतियोंके उदयका अभाव होनेसे तथा सदवस्थारूप अप्रशस्त उपशम होनेसे और सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होनेपर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है । इसमें अनन्तानुबधी कषायका विसंयोजन होता है अर्थात् उसके निषेकोंको सजातीय अप्रत्याख्यानावरण आदि कषायरूप कर दिया जाता है । अतः अनन्तानुबन्धी कषाय अपने रूपसे उदयमें न आकर सजातीय अप्रत्याख्यानावरण आदि रूपसे उदयमें आती हैं । इसी तरह मिथ्यात्व कर्म सम्यक्त्व १बम अणु०। २ब सम्मत्त पयडि उदये। ३बग मखय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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