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________________ -३०८] १२. धर्मानुप्रेक्षा २१७ मायालोभमिथ्यात्वसम्यमिथ्यात्वसम्यक्त्वप्रकृतीनाम् उपशमात् अनुदयरूपात् प्रथमसम्यक्त्वमुत्पद्यते। अनादिकालमिथ्यादृष्टिभव्यजीवस्य कर्मोदयोत्पादितकलुषतायां सत्यां कस्मादुपशमो भवतीति चेत् , काललब्ध्यादिकारणादिति ब्रमः । कासौ काललब्धिः । कर्मवेष्टितो भव्यजीवः अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाले उद्वरिते सति औपशमिकसम्यक्त्वग्रहणयोग्यो भवति । अर्धपुद्गलपरिवर्तनादधिके काले सति प्रथमसम्यक्त्वखीकारयोग्यो न स्यादित्यर्थः । एका काललब्धिरियमुच्यते । द्वितीया काललब्धिः यदा कर्मणामुत्कृष्टा स्थितिरात्मनि भवति, जघन्या वा कर्मणां स्थितिरात्मनि भवति तदा औपशमिकसम्यक्त्वं नोत्पद्यते । तर्हि औपशमिकं कदा उत्पद्यते । यदा अन्तःकोटाकोटिसागरोपमस्थितिकानि कर्माणि बन्धं प्राप्नुवन्ति, भवन्ति निर्मलपरिणामकारणात् सत्कर्माणि, तेभ्यः कर्मभ्यः संख्येयसागरोपमसहस्रहीनानि अन्तःकोटाकोटिसागरोपमस्थितिकानि भवन्ति । तदा औपशमिकसम्यक्त्वग्रहणयोग्य आत्मा भवति । इयं द्वितीयकाललब्धिः । अधःकरणम् अपूर्वकरणं च विधाय अनिवृत्तिकरणस्य चरमसमये भव्यश्चातुर्गतिको मिथ्यादृष्टिः संशिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तो गर्भजो विशुद्धिवर्धमानः शुभलेश्यो अवशेष रहा हो। ऐसे जीवको ही सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है ॥ ३०७ ॥ आगे सम्यक्त्वके तीन भेदोंमेंसे उपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्वका लक्षण कहते हैं । अर्थ-सात प्रकृतियोंके उपशमसे उपशम सम्यक्त्व होता है । और इन्हीं सात प्रकृतियोंके क्षयसे क्षायिक सम्यक्त्व होता है । किन्तु क्षायिक सम्यक्त्व केवली अथवा श्रुतकेवलीके निकट कर्मभूमिया मनुष्यके ही होता है । भावार्थ-मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियोंके उपशमसे जैसे निर्मलीके डालनेसे पानीकी गाद नीचे बैठ जाती है, उस तरह उपशम सम्यक्त्व होता है। जिसका उदय होनेपर, तत्त्वोंका श्रद्धान नहीं होता अथवा मिथ्यातत्त्वोंका श्रद्धान होता है उसे मिथ्यात्वमोहनीयकर्म कहते हैं । मिथ्यात्वकर्मका उदय होनेपर आत्मा सर्वज्ञ वीतरागके द्वारा कहे हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप मोक्ष मार्गसे विमुख और तत्त्वार्थ श्रद्धानसे रहित तथा हित अहितके विवेकसे शून्य मिथ्यादृष्टि होता है । जब शुभ परिणामके द्वारा उस मिथ्यात्वकी शक्तिको घटा दिया जाता है और वह आत्माके श्रद्धानको रोकनेमें असमर्थ हो जाता है तो उसे सम्यक्त्वमोहनीय कहते हैं । और जब उसी मिथ्यात्वकी शक्ति आधी शुद्ध हो पाती है तो उसे सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीय कहते हैं, उसके उदयसे तत्त्वोंके श्रद्धान और अश्रद्धानरूप मिले हुए भाव होते हैं । मिथ्यात्वका उदय रहते हुए संसार भ्रमणका अन्त नहीं होता इस लिये मिथ्यात्वको अनन्त कहा है । जो क्रोध मान माया लोभ अनन्त (मिथ्यात्व) से सम्बद्ध होते हैं उन्हें अनन्तानुबन्धी कहते हैं । इनकी शक्ति बडी तीव्र होती है । इसीसे ये नरकगतिमें उत्पन्न करानेमें कारण हैं । इन अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्स्वमोहनीयके उपशमसे ( उदय न होनेसे ) प्रथमोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । अब प्रश्न यह होता है कि जो भव्य जीव अनादिकालसे मिथ्यात्वमें पड़ा हुआ है और कोके उदयसे जिसकी आत्मा कलुषित है उसके इन सात प्रकृतियोंका उपशम कैसे होता है ? इसका उत्तर यह है कि काललब्धि आदि निमित्त कारणोंके उपस्थित होनेपर सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है । काललब्धि आदिका खरूप इस प्रकार है-कर्मोंसे घिरे हुए भव्य जीवके संसार भ्रमणका काल अधिकसे अधिक अर्ध पुद्गल परावर्तन प्रमाण बाकी रहनेपर वह प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेका पात्र होता है । यदि उसके परिभ्रमणका काल अर्ध पुद्गल परावर्तनसे अधिक शेष होता है तो प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके कार्तिके० २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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