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________________ २१४ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३०४रामरावणादयः, दूरार्थाः मन्दरनरकस्वर्गादयः तान् पदार्थान् सर्वज्ञाभावे को वेत्ति को जानाति । अपि तु न सर्वज्ञ एव जानाति । अस्ति कश्चित्तेषां प्रत्यक्षं वेत्ता तदावेदकमनुमान, सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः अनुमेयत्वादम्यादिवदिति। अथ इन्द्रियप्रत्यक्षं तदावेदकं भविष्यतीति चेन्न । इन्द्रियज्ञानं स्पर्शनादीन्द्रियप्रत्यक्षज्ञानं न जानाति । कं तम्। स्थूलमपि केवलम् । अपिशब्दात् सूक्ष्म स्थूलसूक्ष्ममपि पदार्थम् । कीदृशं तम् । अशेषपर्याय अशेषाः समग्राः अतीतानागतवर्तमानकालविषयाः पर्यायाः परिणामाः विद्यन्ते यस्य स तथोक्तः। तं स्थूलमर्थ समग्रपर्यायसहितं पदार्थम् इन्द्रियज्ञानं न जानाति ॥३०३ ॥ अथ सर्वज्ञास्तित्वे सिद्ध तदुपदिष्टो धर्म एवाङ्गीकर्तव्य इत्यावेदयति तेणुवइट्ठो' धम्मो संगासत्ताण तह असंगाणं । पढमो बारह-भेओ दह-भेओ' भासिओ बिदिओ ॥ ३०४॥ [छाया-तेन उपदिष्टः धर्मः संगासक्तानां तथा असंगानाम् । प्रथमः द्वादशभेदः दशभेदः भाषितः द्वितीयः ॥1 तेन सर्वज्ञेन सर्वदर्शिना वीतरागदेवेन धर्मः वृषः उपदिष्टः कथितः । आत्मानमिष्टे नरेन्द्रसुरेन्द्रमुनीन्द्रवन्ये मुक्तिस्थाने धत्त इति धर्मः । अथवा संसारस्थान् प्राणिनो धरति धारयतीति वा धर्मः । वा संसारे पतन्तं जीवमुदत्य नागेन्द्रनरेन्द्रदेवेन्द्रादिवन्येऽव्याबाधानन्तसुखाद्यनन्तगुणलक्षणे मोक्षपदे धरतीति धर्मः । तस्य मेदौ द्वौ। कौ इति चेत् । केषां संगासक्तानां संगेषु परिग्रहेषु आसक्ता ये संगासक्तास्तेषां परिग्रहरतानां श्रावकाणां धर्मः । तह तथा असंगानां न विद्यन्ते संगाः बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहाः येषां ते असंगास्तेषाम् असंगानां बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहपरित्यक्तानां निर्ग्रन्थानां मुनीनां धर्मः। तयोर्धर्मयोर्मध्ये प्रथमः श्रावकगोचरो धर्मः द्वादशभेदः सम्यग्दर्शनशुद्धादिद्वादशप्रकारो भाषितः, द्वितीयः मुनीश्वरगोचरो धर्मः दशमेदः उत्तमक्षमादिदशप्रकारो वृषो भाषितः प्रकाशितः ॥ ३०४ ॥ अथ तान्प्रथमोद्दिष्टान् द्वादशभेदान् गाथाद्वयेन प्ररूपयति सम्मइंसण-सुद्धो रहिओ मजाइ-थूल-दोसेहिं । वय-धारी सामाइउ' पव्व-वई पासुयाहारी ॥३०५॥ समन्तभद्र स्वामीने आप्तमीमांसामें सर्वज्ञकी सिद्धि करते हुए कहा है-सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ किसीके प्रत्यक्ष हैं क्योंकि उन्हें हम अनुमानसे जान सकते हैं । जो वस्तु अनुमानसे जानी जा सकती है वह किसीके प्रत्यक्ष भी होती है जैसे आग । शायद कोई कहे कि इन पदार्थोंका ज्ञान तो इन्द्रियसे हो सकता है, किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है क्यों कि इन्द्रियाँ तो सम्बद्ध वर्तमान और स्थूल पदार्थोंको ही जाननेमें समर्थ हैं । अतः वे स्थूल पदार्थोकी भी भूत भविष्यत सब पर्यायोंको नहीं जानती हैं । तब अतीन्द्रिय पदार्थोंको कैसे जान सकती हैं? ॥३०३ ॥ सर्वज्ञका अस्तित्व सिद्ध करके आचार्य सर्वज्ञके द्वारा उपदिष्ट धर्मका वर्णन करते हैं । अर्थ-सर्वज्ञके द्वारा कहा हुआ धर्म दो प्रकारका है-एक तो संगासक्त अर्थात् गृहस्थका धर्म और एक असंग अर्थात् निर्ग्रन्थ मुनिका धर्म । प्रथमके बारह भेद कहे हैं और दूसरेके दस भेद कहे हैं ॥ भावार्थ-जो आत्माको नरेन्द्र, सुरेन्द्र और मुनीन्द्रसे वन्दनीय मुक्तिस्थानमें धरता है उसे धर्म कहते हैं । अथवा जो संसारी प्राणियोंको धरता है यानी उनका उद्धार करता है वह धर्म है । अथवा जो संसार समुद्रमें गिरते हुए जीवोंको उठाकर नरेंद्र, देवेंद्र वगैरहसे पूजित अनन्त सुख आदि अनन्तगुणोंसे युक्त मोक्षपदमें धरता है उसे धर्म कहते हैं । सर्वज्ञ भगवानने उस धर्मके दो भेद किये हैं-एक परिग्रहसे घिरे हुए गृहस्थोंके लिये और एक परिग्रह रहित मुनियोंके लिये । श्रावक धर्म बारह प्रकारका कहा है और मुनि धर्म दस प्रकारका कहा है ।। ३०४ ॥ आगे दो गाथाओंके द्वारा श्रावक धर्मके बारह भेदोंको कहते हैं १ ग तेणवइट्ठो। २ ल म सग दसभेओ। ३ म स बयधारी सामइओ, ग वयधरी सामाईओ (ल सामाईउ)। ४ ह स ग पासुआहारी, म फासुआहारी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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