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________________ २०६ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २८७[छाया-विकलेन्द्रियेषु जायते तत्र अपि आस्ते पूर्वकोटयः । ततः निःसृत्य कथमपि पञ्चेन्द्रियः भवति ॥1 विकलेन्द्रियेषु द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु जायते उत्पद्यते तत्रापि द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु पूर्वकोटयः जीवः आस्ते तिष्ठतीत्यर्थः । तथा चोक्तं च (3)। ततो तेभ्यः विकलत्रयेभ्यः निःसृत्य निर्गत्य कथमपि महता कष्टेन पञ्चेन्द्रियो जीवो भवति ॥ २८६ ॥ अथामनस्कसमनस्कपञ्चेन्द्रियत्वं दुर्लभं दर्शयति सो विमणेण विहीणो ण य अप्पाणं परं पि' जाणेदि । अह मण-सहिदो होदि हु तह वि तिरिक्खो' हवे रुहो ॥ २८७॥ [छाया-सः अपि मनसा विहीनः न च आत्मानं परम् अपि जानाति । अथ मनःसहितः भवति खलु तथापि तिर्यक् भवेत् रुद्रः॥] सोऽपि पञ्चेन्द्रियो जीवः मनसा विहीनः द्रव्यभावमनसा चित्तेन विहीनः रहितः शिक्षालापादिग्रहणरहितः असंज्ञी जीवः सन् आत्मानं शुद्धबोधमयं अपिशब्दात् परमपि अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुप्रवचनदशलाक्षणिकधर्मादिकवचनं न जानाति न वेत्तीत्यर्थः । अह अथवा, हु इति वितर्के, कदाचित् महता कष्टेन मनःसहितः मनसा चेतसा युक्तः संज्ञी पञ्चेन्द्रियो जीवो भवति । तथापि संज्ञिपञ्चेन्द्रिये सत्यपि तिर्यक् रुद्रः करः मार्जारमूषकबकगृध्रसपेनकुलव्याघ्रसिंहमत्स्यादिरूपो भवेत् ॥ २८७ ॥ अथ तस्य नरकपातादिकं दर्शयति सो तिव्व-असुह-लेसो णरये णिवडेइ दुक्खदे भीमे । तत्थ वि दुक्खं भुंजदि सारीरं माणसं पउरं ॥ २८८ ॥ [छाया-स तीव्र अशुभलेश्यः नरके निपतति दुःखदे भीमे । तत्रापि दुःखं भुङ्क्ते शारीरं मानसं प्रचुरम् ॥ ] सो स तिर्य क्रूरजीवः नरकं रत्नप्रभादिकं प्रति निपतति तत्रावतरतीत्यर्थः । कीदृक् सन् । तीव्राशुभलेश्यः, कषायपरिणता लेता है । वहाँभी अनेक पूर्वकोटि काल तक रहता है । वहाँसे निकलकर जिस किसी तरह पञ्चेन्द्रिय होता है । भावार्थ-एकेन्द्रियसे दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय होकर पञ्चेन्द्रिय होना दुर्लभ है । यदि विकलेन्द्रियसे पुनः एकेन्द्रिय पर्यायमें चला गया तो फिर बहुत काल तक वहाँसे निकलना कठिन है। अतः त्रस होकरभी पञ्चेन्द्रिय होना दुर्लभ है ॥ २८६ ॥ आगे कहते हैं कि पञ्चेन्द्रियोमेंभी सैनी पञ्चेन्द्रिय आदि होना दुर्लभ है। अर्थ-विकलत्रयसे निकलकर पञ्चेन्द्रिय भी होता है तो मनरहित असैनी होता है । अतः आपको और परको नहीं जानता । और जो कदाचित् मनसहित सैनी भी होता है तो रौद्र परिणामी तिर्यञ्च होता है ॥ भावार्थ-यदि पञ्चेन्द्रिय पर्याय भी प्राप्त कर लेता है तो असंज्ञी होनेके कारण बातचीत, उपदेश वगैरह नहीं समझ सकता । अतः न तो स्वयं अपनेको जानता है और न अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, आगम, धर्म वगैरहको ही जानता है। कदाचित् जिस किसी तरह संज्ञी पञ्चेन्द्रिय भी होता है तो बिलाव, चूहा, भेडिया, गृद्ध, सर्प, नेवला, व्याघ्र, सिंह, मगर, मच्छ आदि क्रूर तिर्यश्च हो जाता है । अतः सदा पापरूप परिणाम रहते हैं ॥२८७॥ आगे कहते हैं कि वह नरकमें चला जाता है । अर्थ-सो तीव्र अशुभ लेश्यासे मरकर वह क्रूर तिर्यश्च दुःखदायी भयानक नरकमें चला जाता है । वहाँ प्रचुर शारीरिक तथा मानसिक दुःख भोगता है । भावार्थ-कषायके उदयसे रंगी हुई मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं। तथा क्रोध, मान, माया और लोभको कषाय कहते हैं । प्रत्येक कषाय चार प्रकारकी होती है। उसमेंसे पत्थरकी १सवि। २ब सहिदो (१), लमग सहिओ। ३ ल मग तिरक्खो। ४ बलमग णरयं, स गरले (१), [णरयम्मि पडेइ ]। ५म णिवडेदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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