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________________ १९८ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २७५सव्वेसिं वत्थूणं संखा-लिंगादि-बहु-पयारेहिं । जो साहदि णाणतं सद्द-णयं तं 'वियाणेह ॥ २७५ ॥ [छाया-सर्वेषां वस्तूनां संख्यालिङ्गादिबहुप्रकारैः । यः कथयति नानात्वं शब्दनयं तं विजानीहि ॥] यः शब्दनयः संख्यालिङ्गादिबहुप्रकारैः एकद्विबहुवचनपुंस्त्रीनपुंसकलिङ्गाद्यनेकविधैः कृत्वा सर्वेषां वस्तूनां सकलानां पदार्थानां जीवपुद्गलादीनां णाणत्तं ज्ञानत्वं ज्ञातृत्वं नानात्वम् अनेकप्रकारत्वं वा साधयति साध्यं करोति तं शब्दनयनामानं नयं जानीहि त्वं विद्धि । तद्यथा। शब्दात् व्याकरणात् प्रकृतिप्रत्ययद्वारेण सिद्धशब्दः शब्दनयः, लिङ्गसंख्यासाधनादीनां व्यभिचारस्य निषेधपरः.लिजादीनां व्यभिचारे दोषो नास्तीत्यभिप्रायपरः शब्दनयः उच्यते। लिङ्गव्यभिचारो, यथा पुष्यः नक्षत्रं तारका चेति । संख्याव्यभिचारो, यथा आपः तोयं वर्षाः ऋतुः दाराः कलत्रम् आम्रा वनं वारणा नगरम् । साधनव्यभिचारः कारकव्यभिचारो. यथा सेना पर्वतमधिवसति पर्वते तिष्ठतीत्यर्थः । उत्तमादिपुरुषव्यभिचारः, यथा एहि मन्ये रथेन यास्यसि न यास्यसि यातस्ते पिता इति । अस्यायमर्थः । एहि त्वमागच्छ, त्वमेवं मन्यसे अहं रथेन यास्यामि । एतावता त्वं रथेन न यास्यसि । ते तव पिता अग्रे रथेन यातः, न यात इत्यर्थः । अत्र मध्यमपुरुषस्थाने उत्तमपुरुषः उत्तमपुरुषस्थाने मध्यमपुरुषः। तदर्थ सूत्रमिदम् । 'प्रहासे मन्योपपदे मन्यतेरुत्तमैकवचनं च। उत्तमे मध्यमस्य ।' कालव्यभिचारो, यथा विश्वदृश्वा अस्य पुत्रो जनिता भविष्यत्कार्यमासीदिति । अत्र भविष्यत्काले अतीतकालविभक्तिः । अर्थको विषय करते हैं ॥ २७४ ॥ आगे शब्दनयका खरूप कहते हैं। अर्थ-जो नय सब वस्तुओंको संख्या लिंग आदि भेदोंकी अपेक्षासे भेदरूप ग्रहण करता है वह शब्दनय है । भावार्थ-संख्यासे एकवचन, द्विवचन और बहुवचन लेना चाहिये। लिंगसे स्त्री, पुरुष और नपुंसकलिंग लेना चाहिये । और आदि शब्दसे काल, कारक, पुरुष, उपसर्ग वगैरह लेना चाहिये । इनके भेदसे जो सब वस्तुओंको भेद रूप ग्रहण करता है वह शब्दनय है । वैयाकरणोंके मतके अनुसार एकवचनके स्थानमें बहुवचनका, स्त्रीलिंग शब्दके बदलेमें पुल्लिंग शब्दका, एक कारकके स्थानमें दूसरे कारकका, उत्तम पुरुषके स्थानमें मध्यम पुरुषका और मध्यम पुरुषके स्थानमें उत्तम पुरुषका तथा भविष्यकालमें अतीत कालका प्रयोग किया जाता है । ये महाशय शब्दोंमें लिंग वचन आदिका भेद होनेपरभी उनके वाच्य अर्थों में कोई भेद नहीं मानते । इसलिये वैयाकरणोंका यह मत व्यभिचार कहलाता है । जैसे, एक ही तारेको पुष्य, नक्षत्र और तारका इन तीन लिंगवाले तीन शब्दोंसे कहना लिंगव्यभिचार है। एक ही वस्तुको भिन्न वचनवाले शब्दोंसे कहना संख्याव्यभिचार है । जैसे पानीको आपः (बहुवचन) कहना और जल (एकवचन ) कहना । 'सेना पर्वतपर रहती है' के स्थानमें सेना पर्वतको रहती है' कहना कारकव्यभिचार है (संस्कृत व्याकरणके अनुसार यहाँ सप्तमीके स्थानमें द्वितीया विभक्ति होती है ) । संस्कृत व्याकरणके अनुसार हंसी मजाकमें उत्तम पुरुषके स्थानमें मध्यम पुरुषका और मध्यम पुरुषके स्थानमें उत्तम पुरुषका प्रयोग होता है यह पुरुषव्यभिचार है । 'उसके ऐसा पुत्र पैदा होगा जो विश्वको देख चुका है यह काल व्यभिचार है क्यों कि भविष्यत् कालमें अतीतकालकी विभक्तिका प्रयोग है । इसी तरह संस्कृत व्याकरणके अनुसार धातुके पहले उपसर्ग लगनेसे उसका पद बदल जाता है । जैसे ठहरनेके अर्थमें 'स्था' धातु परस्मैपद है किन्तु उसके पहले उपसर्ग लगनेसे वह आत्मनेपद हो जाती है। यह उपग्रहव्यभिचार है । शब्दनय इस १ व वियाणेहि (१)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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