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________________ -२६७ ] १०. लोकानुप्रेक्षा १९१ भावानां स्वार्थिका हि ते। वार्थिकाश्च विपर्यस्ताः सकलङ्का नया यतः॥' तत्कथम् । तथाहि । सर्वथा एकान्तेन सद्रूपस्य न नियतार्थव्यवस्थासंकरादिदोषत्वात्, तथा सद्रूपस्य सकलशून्यताप्रसंगात् , नित्यस्यैकरूपत्वात् एकरूपस्यार्थक्रियाकारित्वाभावः, अर्थक्रियाकारित्वाभावे द्रव्यस्याप्यभावः । अनित्यपक्षेऽपि निरन्वयत्वात् अर्थक्रियाकारित्वाभावः। अर्थक्रियाकारित्वाभावे द्रव्य स्याप्यभावः । एकस्वरूपस्यैकान्तेन विशेषाभावः, सर्वथैकरूपत्वात् विशेषाभावे सामान्यस्याप्यभावः । 'निर्विशेष हि सामान्यं भवेत्खरविषाणवत् । सामान्यरहितत्वाच विशेषस्तद्वदेव हि ॥' इत्यादिनिरपेक्षा नया दुर्णयाः असत्यरूपा अनर्थकारिणः सन्ति । नियमेन अवश्यं सुणयादो सुनयेभ्यः सत्यरूपनयेभ्यः सकलव्यवहारसिद्धिः, सकलव्यवहाराणां भेदोपचारेण सकलवस्तुव्यवहारक्रियमाणानां ग्रहणदानगमनागमनयजनयाजनस्थापनादिव्यवहाराणा सिद्धिः निष्पत्तिर्भवति ॥ २६६॥ अथ परोक्षज्ञानमनुमानं निर्दिशति जं जाणिज्जइ जीवो इंदिय-वावार-काय-चिट्ठाहिं। तं अणुमाणं भण्णदि तं पि णयं बहु-विहं जाण ॥२६७ ॥ [छाया-यत् जानाति जीवः इन्द्रियव्यापारकायचेष्टाभिः । तत् अनुमानं भण्यते तम् अपि नयं बहुविधं जानीहि ॥] इन्द्रियव्यापारकायचेष्टाभिः स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रैः मनसा च व्यापारैः गमनागमनादिलक्षणैः शरीराकारविशेषैः जीवः आत्मा यत् जानाति तमपि अनुमाननयं ज्ञानं भणति कथयति । अथवा इन्द्रियाणां स्पर्शनादीनां व्यापाराः विषयाः स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दरूपाः तैः जीवः यत् जानाति तत् अनुमानज्ञानं कथयति । साधनात् साध्यविज्ञानमनुमानम् , इष्टमबाधितमसिद्ध साध्यम्। साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः । यथा वस्तुको मानने पर उसमें अर्थक्रिया नहीं बनेगी और अर्थक्रियाके अभावमें वस्तुका ही अभाव हो जायेगा। सर्वथा अनित्य माननेपर वस्तुका निरन्वय विनाश होजानेसे उसमें भी अर्थक्रिया नहीं बनेगी। और अर्थक्रियाके अभावमें वस्तुका भी अभाव हो जायेगा । वस्तुको सर्वथा एकरूप माननेपर उसमें विशेष धर्मोका अभाव हो जायेगा, और विशेषके अभावमें सामान्यका भी अभाव हो जायेगा, क्योंकि विना विशेषका सामान्य गधेके सींगकी तरह असंभव है और बिना सामान्यके विशेष भी गधेके सींगकी तरह संभव नहीं है । अर्थात् सामान्य विशेषके बिना नहीं रहता और विशेष सामान्यके बिना नहीं रहता । अतः निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं । इस लिये सापेक्ष सुनयसे ही लोकव्यवहारकी सिद्धि होती है ॥२६६॥ आगे परोक्षज्ञान अनुमानका खरूप कहते हैं । अर्थ-इन्द्रियोंके व्यापार और कायकी चेष्टाओंसे जो जीवको जानता है वह अनुमान ज्ञान है । यह भी नय है । इसके अनेक भेद हैं ॥ भावार्थ-जीवद्रव्य इन्द्रियोंसे दिखाई नहीं देता । किन्तु जिस शरीरमें जीव रहता है वह शरीर हमें दिखाई देता है । उस शरीरमें आंख, नाक, कान वगैरह इन्द्रियां होती हैं । उनके द्वारा वह खाता पीता है, सूंघता है, जानता है, हाथ पैर हिलाता है, चलता फिरता है, बातचीत करता है, बुलानेसे आजाता है । इन सब चेष्टाओंको देखकर हम यह जान लेते हैं कि इस शरीरमें जीव है । यही अनुमान ज्ञान है । साधनसे साध्यके ज्ञानको अनुमान कहते हैं । तथा जो सिद्ध करनेके लिये इष्ट होता है, जिसमें कोई बाधा नहीं होती तथा जो असिद्ध होता है उसे साध्य कहते हैं । और जो साध्यके होने पर ही होता है उसके अभावमें नहीं होता उसे साधन कहते हैं । जैसे, इस पर्वतपर आग है, क्योंकि धुआं उठ रहा है जैसे रसोईघर । यह अनुमान ज्ञान है । इसमें आग साध्य हे और धुआं साधन है; क्योंकि आगके होने. पर ही धुआं होता है और आगके अभावमें नहीं होता । अतः धुआंको देखकर आगको जान लेना अनुमान ज्ञान है । इस अनुमानके अनेक भेद परीक्षामुख वगैरहमें बतलाये हैं । अथवा परोक्ष ज्ञानके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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