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________________ १८७ -२६२] १०. लोकानुप्रेक्षा शुद्धाशुद्धद्रव्यार्थिकेन विभावस्वभावत्वम् । शुद्धद्रव्यार्थिकेन शुद्धस्वभावः । अशुद्धद्रव्यार्थिकेन अशुद्धखभावः । असद्भूतव्यवहारेण उपचरितखभावः। श्लोकः । 'द्रव्याणां तु यथारूपं तल्लोकेऽपि व्यवस्थितम् । तथाज्ञानेन संज्ञानं नयोऽपि हि तथाविधः ॥' इति नययोजनिका । सकलवस्तुप्राहकं प्रमाणं, प्रमीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन ज्ञानेन तत्प्रमाणम् । (तद्देधा सविकल्पेतरभेदात् । सविकल्पं मानसम्, तच्चतुर्विधम् । मतिश्रुतावधिमनःपर्यायरूपम् । निर्विकल्पं मनोरहितं केवलज्ञानमिति प्रमाणस्य व्युत्पत्तिः) प्रमाणेन वस्तुसंगृहीतार्थेकांशो नयः, श्रुतविकल्पो वा, ज्ञातुरभिप्रायो वा नयः । नानाखभावेभ्यो व्यावृत्त्य एकस्मिन् खभावे वस्तु नयति प्राप्नोति इति वा नयः । इति श्रुतज्ञानेन नयैश्च वस्तु अनेकान्तं भवति । यद्वस्तु निरपेक्षं प्रतिपक्षधर्मानपेक्षम् एकान्तरूपं तद्वस्तु न दृश्यते, नैव लोक्यत एव । एकान्तास्मकस्य वस्तुनः जगत्यभावात् । 'निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत्' इति वचनात् । तथा चोक्तम् । 'य एव नित्यक्षणिकादयो नया मिथोनपेक्षाः खपरप्रणाशिनः । त एव तत्त्वं विमलस्य ते मुनेः परस्परेक्षाः स्वपरोपकारिणः ॥' इति ॥ २६१ ॥ अथ श्रुतज्ञानस्य परोक्षेणानेकान्तप्रकाशत्वं दर्शयति सव्वं पि अणेयंत परोक्ख-रूवेण जं पयासेदि । तं सुय-णाणं' भण्णदि संसय-पहुदीहि परिचत्तं ॥ २६२ ॥ [छाया-सर्वम् अपि अनेकान्तं परोक्षरूपेण यत् प्रकाशयति । तत् श्रुतज्ञान भण्यते संशयप्रभृतिभिः परित्यतम् ॥] यत्परोक्षरूपेण सर्वमपि जीवादिवस्तु अनेकधर्मविशिष्टं प्रकाशयति तत् श्रुतज्ञानं भण्यते, जिनोक्तश्रुतज्ञानं कथ्यते । तत्कीदृशम् । संशयप्रभृतिभिः परित्यक्तं संशयविपर्यासानध्यवसायादिमी रहितम् । स्थाणुर्वा पुरुषो वा इति खभाव है । शुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे शुद्ध खभाव है और अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे अशुद्ध स्वभाव है। तथा असद्भूत व्यवहार नयसे उपचरित स्वभाव है। सारांश यह है कि द्रव्योंका जैसा खरूप है वैसा ही ज्ञानसे जाना गया है, तथा वैसा ही लोकमें माना जाता है । नयभी उसे वैसा ही जानते हैं । अन्तर केवल इतना है कि प्रमाणसे वस्तुके सब धर्मोको ग्रहण करके ज्ञाता पुरुष अपने अभिप्रायके अनुसार उसमेंसे किसी एक धर्मकी मुख्यतासे वस्तुका कथन करता है । यही नय है । इसीसे ज्ञाताके अभिप्रायको भी नय कहा है। तथा जो नाना खभावोंको छोड कर वस्तुके एक स्वभावको कथन करता है वह नय है । नयके भी सुनय और दुर्नय दो भेद हैं । जो वस्तुको प्रतिपक्षी धर्मसे निरपेक्ष एकान्तरूप जानता या कहता है वह दुर्नय है । दुर्नयसे वस्तु खरूपकी सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि यह बतला आये हैं कि वस्तु सर्वथा एकरूप ही नहीं है । अतः जो प्रतिपक्षी धर्मोकी अपेक्षा रखते हुए वस्तुके एक धर्मको कहता या जानता है वही सुनय है । इसीसे निरपेक्ष नयोंको मिथ्या बतलाया है और सापेक्ष नयोंको वस्तुसाधक बतलाया है । खामी समन्तभद्रने स्वयंभूस्तोत्रमें विमलनाथ भगवानकी स्तुति करते हुए कहा है-'वस्तु नित्यही है' अथवा 'वस्तु क्षणिकही है' जो ये निरपेक्ष नय ख और पर के घातक हैं, हे विमलनाथ भगवन् ! वे ही नय परस्पर सापेक्ष होकर आपके मतमें तत्त्वभूत हैं, और स्व और पर के उपकारक हैं ॥ २६१ ॥ आगे कहते हैं कि श्रुतज्ञान परोक्ष रूपसे अनेकान्तका प्रकाशन करता है । अर्थ-जो परोक्ष रूपसे सब वस्तुओंको अनेकान्त रूप दर्शाता है, संशय आदिसे रहित उस ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं ।। भावार्थ-तीन मिथ्याज्ञान होते हैं-संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय । यह ढूंठ है अथवा आदमी है ? इस प्रकारके चलित ज्ञानको संशय कहते हैं । सीपको १ म सुअणाणं, ग सुयनाणं भन्नदि । २ ल स ग परिचित्तं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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