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________________ -२५१] १०. लोकानुप्रेक्षा १७७ हट्टादिबावार्थः पदार्थः द्रव्यं वस्तु विद्यते । तदपि देहगेहादि बाह्य वस्तु ज्ञानं बोधः मन्यते सर्व शानमेवेत्यङ्गीकरोति स ज्ञानाद्वैतवादी ज्ञाननामापि ज्ञानस्याभिधानमपि न जानाति न वेत्तीत्यर्थः ॥ २४९ ॥ अन्यच्च । अथ नास्तिकवादिनं दूषणान्तरेण गाथात्रयेण दूषयति अच्छीहिँ' पिच्छमाणो जीवाजीवादि-बहु-विहं अत्थं । जो भणदि' णत्थि किंचि वि सो झुट्ठाणं महाझुट्टो ॥ २५० ॥ [छाया-अक्षिभ्यां प्रेक्षमाणः जीवाजीवादि बहुविधम् अर्थम् । यः भणति नास्ति किंचित् अपि स धूर्तानां महाधूर्तः ॥] यः कश्चिन्नास्तिको वादी किंचिदपि वस्तु मातङ्गतुरङ्गगोमहिषमनुष्यगृहहट्टचेतनवस्तु नास्तीति भणति । किं कुर्वन् सन् । अच्छीहिं अक्षिभ्यां चक्षुया बहुविधम् अनेकप्रकार जीवाजीवादिकम् अर्थ चेतनाचेतनमिश्रादिक वस्तु पदार्थ प्रेक्षमाणः पश्यन् सन् स नास्तिकवादी जुष्टानां मध्ये महाजुष्टः । असत्यवादिना मध्ये महासत्यवादी धृष्टानां मध्ये महाधृष्टः महानिर्लजः ॥ २५०॥ जं सर्व पि य संत' ता सो वि असंतओ कहं होदि। णत्थि त्ति किंचि तत्तो अहवा सुण्णं कहं मुणदि ॥ २५१॥ [छाया-यत् सर्वम् अपि च सत् तत् सः अपि असत्कः कथं भवति । नास्ति इति किंचित् ततः अथवा शून्यं कथं जानाति ॥] अपि च दूषणान्तरे, यत् सर्व विद्यमानं गृहगिरिधराजलादिकं विद्यमानमस्ति । *तासो वि तस्यापि असत्त्वम् अविद्यमानत्वं कथं भवति । अथवा तत्तो ततः तस्मात् किंचिन्नास्तीति । इति शून्यं कथं मनुते जानाति स्वयं विद्यमानः सर्व नास्तीति कथं वेत्तीति खयं विद्यमानत्वात् सर्वशून्यभावः ॥ २५१॥ पाठान्तरेणेयं गाथा। तस्य व्याख्यानमाह । ज्ञानरूप नहीं है । जो उनको ज्ञानरूप कहता है वह ज्ञानके खरूपको नहीं जानता, इतना ही नहीं, बल्कि उसने ज्ञानका नाम भी नहीं सुना, ऐसा लगता है, क्यों कि यदि वह ज्ञानसे परिचित होता तो बाह्य पदार्थोंका लोप न करता ॥ २४९ ॥ अब तीन गाथाओंसे शून्यवादमें दूषण देते हैं । अर्थ-जो शून्यवादी जीव अजीव आदि अनेक प्रकारके पदार्थोको आंखोंसे देखते हुए भी यह कहता है कि कुछमी नहीं है, वह झूठोंका सिरताज है ॥ अर्थ-तथा जब सब वस्तु सत्स्वरूप हैं अर्थात् विद्यमान हैं तब वह असत् रूप यानी अविद्यमान कैसे हो सकती हैं ! अथवा जब कुछ है ही नहीं और सब शून्य है तो इस शून्य तत्त्वको कैसे जानता है ? ॥ इस गाथाका पाठान्तर भी है उसका अर्थ इसप्रकार हैयदि सब वस्तु असत् रूप हैं तो वह शून्यवादी भी असत् रूप हुआ तब वह 'कुछ भी नहीं है' ऐसा कैसे कहता है अथवा वह शून्यको जानता कैसे है।। भावार्थ-शून्यवादी बौद्धका मत है कि जिस एक या अनेकरूपसे पदार्थोंका कथन किया जाता है वास्तवमें वह रूप है ही नहीं, इस लिये वस्तुमात्र असत् है और जगत् शून्यके सिवा और कुछ भी नहीं है। शून्यवादीके इस मतका निराकरण करते हुए आचार्य कहते हैं कि भाई, संसारमें तरह तरहकी वस्तुएँ आंखोंसे साफ दिखाई देती हैं । जो उनको देखते हुए भी कहता है कि जगत् शून्य रूप है वह महाझूठा है । तथा जब जगत् शून्यरूप है और उसमें कुछ भी सत् नहीं है तो ज्ञान और शब्द भी असत् हुए । और जब ज्ञान और शब्द भी असत् हुए तो वह शून्यवादी कैसे तो स्वयं यह जानता है कि सब कुछ शून्य है और कैसे दूसरोंको यह कहता है कि सब शून्य है क्योंकि ज्ञान और शब्दके अभावमें न १ब अच्छाहि, ग अच्छाहि । २ ब जीवाइ । ३ ब भणइ, ग भणवि (१)। ४ ग ज्झुठाणं महुझुठो, स झूठाण महीझूठो [धुदाणं महाधुटो]। ५ब-पुस्तके गाथांशः पत्रान्ते लिखितः। ६ ब ल म स असंतउं (-3),ग असंतउ । कार्तिके० २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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