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________________ -२४६] १०. लोकानुप्रेक्षा १७५ दवाण पजयाणं धम्म-विवक्खाएँ कीरएं भेओ'। वत्थु-सरूवेण पुणो ण हि भेदो सक्कदे काउं ॥ २४५ ॥ [छाया-द्रव्याणां पर्ययाणां धर्मविवक्षया क्रियते भेदः । वस्तुस्वरूपेण पुनः न हि भेदः शक्यते कर्तुम् ॥] कारणकार्ययोः सर्वथा भेदः इति नैयायिकानां मतम् , तन्निरासार्थमाह। द्रव्याणां मृद्रव्यादीनां कारणभूतानां पर्यायाणां घटादिपरिणतानां कार्यभूतानां भेदः क्रियते । कया। धर्मविवक्षया एव खभावं वक्तुमिच्छया एव । इदं मृगव्यादि कारणम् , इदं घटादिपर्यायः कार्यमिति धर्मधर्मिणोर्भेदेन भेदः । न तु सर्वथा भेदः । हीति स्फुटम् । पुनः धर्मधर्मिणोर्भेदः कर्तुं न शक्यते । वस्तुखरूपेण द्रव्यार्थिकनयप्राधान्येन कार्यकारणयोरैक्यं, तथा च गुणगुणिनोः पर्यायपर्यायिणोः खभावस्वभाविनोः कारणकारणिनोः भेदः । द्रव्ये द्रव्योपचारः गुणे गुणोपचारः पर्याये पर्यायोपचारः द्रव्ये गुणोपचारः द्रव्ये पर्यायोपचारः गुणे द्रव्योपचारः गुणे पर्यायोपचारः पर्याये द्रव्योपचारः पर्याय गुणोपचारः इति अभेदः ॥२४५॥ अथ वस्तुतः द्वयोरपि द्रव्यपर्याययोः सर्वथा भेदवादिनं दूषयति जदि वत्थुदो विभेदों पजय-दवाण मण्णसे मूढ । तो णिरवेक्खा सिद्धी दोण्हं पि य पावदे णियमा ॥ २४६ ॥ [छाया-यदि वस्तुतः विभेदः पर्ययद्रव्याणां मन्यसे मूढ । ततः निरपेक्षा सिद्धिः द्वयोः अपि च प्राप्नोति नियमात् ॥ रे मूढ हे अज्ञानिन हे नैयायिकपशो. यदि चेत्पर्यायव्ययोर्वस्तुतः परमार्थतः वस्तुसामान्येन वा भेदः भिन्नत्वं मन्यसे त्वम् अङ्गीक्रियसे तो तर्हि दोहं पिद्वयोरपि कार्यकारणयोरपि गुणगुणिनोः पर्यायपर्यायिणोश्च मेदः नियमात् निरपेक्षा परस्परापेक्षारहिता सिद्धिः निष्पत्तिः प्राप्नोति । यथा हि पर्यायिणोर्मुद्रव्यादेः घटादिपर्यायाः सर्वथा भिन्नास्तर्हि मृद्रव्यादिना विना घटादिपर्यायाः कथं न लभेरन् ॥ २४६ ॥ अथ ज्ञानाद्वैतवादिनं गाथात्रयेण दूषयति आगे द्रव्य और पर्यायमें कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद बतलाते हैं । अर्थ-धर्म और धर्मीकी विवक्षासे द्रव्य और पर्यायमें भेद किया जाता है । किन्तु वस्तु स्वरूपसे उनमें भेद नहीं है | भावार्थ-नैयायिक मतावलम्बी कारण और कार्यमें सर्वथा भेद मानता है । उसका निराकरण करते हुए आचार्य कहते हैं कि कारणरूप मिट्टी आदि द्रव्यमें और कार्यरूप घटादि पर्यायमें धर्म और धर्मी भेदकी विवक्षा होनेसे ही भेद है, अर्थात् जब यह कहना होता है कि यह मिट्टी धर्मी है और यह घटादि पर्याय धर्म है, तभी भेदकी प्रतीति होती है, किन्तु वस्तु खरूपसे धर्म और धर्मीमें भेद नहीं किया जा सकता । अर्थात् द्रव्यार्थिक नयसे कार्य और कारणमें अभेद है। इसी तरह गुण गुणी, पर्याय पर्यायी, स्वभाव खभाववान् आदिमें भी कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद समझना चाहिये ॥ २४५॥ आगे द्रव्य और पर्यायमें सर्वथा भेद माननेवाले वादीको दूषण देते हैं । अर्थ-हे मूढ, यदि तू द्रव्य और पर्यायमें वस्तुरूपसे भी भेद मानता है तो द्रव्य और पर्याय दोनोंकी नियमसे निरपेक्ष सिद्धि प्राप्त होती है ॥ भावार्थ-यदि द्रव्य और पर्यायमें वस्तुरूपसे मी भेद माना जायेगा तो द्रव्य पर्यायसे सर्वथा भिन्न एक जुदी वस्तु ठहरेगा और पर्याय द्रव्यसे सर्वथा भिन्न एक जुदी वस्तु ठहरेगी । ऐसी स्थितिमें बिना पर्यायके भी द्रव्य और बिना द्रव्यके पर्याय हुआ करेगी। जैसे यदि मिट्टीरूप द्रव्यसे घटादि पर्याय सर्वथा भिन्न हैं तो मिट्टीके बिना भी घट पाया जायगा। १ब म विवाक्खाय, स ववक्खाए। २ ब कीरइ। ३ ब भेउ, म स भेओ (?) ४ ब विभेओ। ५म मणस मूढो, स मणये, ग माणसे। ६ब दुण्डं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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