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________________ -२४२ १०. लोकानुप्रेक्षा १७३ विनाशं गच्छति, जायते उत्पद्यते च । अत एव द्रव्यगुणपर्यायाणां द्रव्यम् उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त जीवादिकम् , गुणाः द्रव्यत्वादयः सहभाविनः, गुणविकाराः पर्यायाः क्रमभाविनः परिणामाः। द्रव्याणि च गुणाश्च पर्यायाश्च द्रव्यगुणपर्यायाः तेषां द्रव्यगुणपर्यायाणाम् एकत्वं समुदायः परमार्थसत्त्वभूतं निश्चयेन वस्तु, वसन्ति द्रव्यगुणपर्याया अस्मिन्निति वस्तु, द्रव्यम् अर्थः पदार्थः कथ्यते । तथा च षड्दव्येषु पर्यायाः कथ्यन्ते। गुणविकाराः पर्यायाः। ते द्वेधा। खभाव १ विभाव २ पर्यायमेदात् । अगुरुलघुविकाराः खभावपर्यायाः, ते द्वादशधा । षद्धिहानिरूपाः । अनन्तभागवृद्धिः १ असंख्यातभागवृद्धिः २ संख्यातभागवृद्धिः ३ संख्यातगुणवृद्धिः ४ असंख्यातगुणवृद्धिः ५ अनन्तगुणवृद्धिः ६ इति षड्वृद्धिः । तथा अनन्तभागहानिः १ असंख्यातभागहानिः २ संख्यातभागहानिः ३ संख्यातगुणहानिः ४ असंख्यातगुणहानिः ५ अनन्तगुणहानिः ६ एवं षट् वृद्धिहानिरूपाः खभावपयोयाः क्षेयाः। विभावपयोयाश्चतुविधा नरनारकादिपर्यायाः, अथवा चतुरशीतिलक्षाश्च विभावद्रव्यव्यञ्जनपर्यायाः। नरनारकादिकाः विभावगुणव्यानपर्यायाः, मतिज्ञानादयः स्वभावद्रव्यव्यञ्जनपर्यायाः, चरमशरीराकारात् किंचिच्यून सिद्धपर्यायः स्वभावद्रव्यव्यञ्जनपर्यायः स्वभावगुणव्यञ्जनपर्यायाः अनन्तचतुष्टयरूपाः जीवस्य । पुद्गलस्य तु घणुकादयो विभावद्रव्यव्यञ्जनपर्यायाः रसरसान्तरगन्धगन्धान्तरादिविभावगुणव्यजनपर्यायाः । अविभागी पुद्गलपरमाणुः खभावद्रव्यव्यञ्जनपर्यायः वर्णगन्धरसैकैकाः अविरुद्धस्पर्शद्वयं खभावगुणव्यञ्जनपर्यायाः। 'अनाथनिधने द्रव्ये खपर्यायाः प्रतिक्षणम् । उन्मजन्ति निमज्जन्ति जलकल्लोलवजले ॥' 'गुण इदि दव्यविहाणं दव्ववियारोत्थ पज्जवो भणिदो । तेहि अणूणं दवं अजुदपसिद्ध हवदि णिचं ॥' स्वभावविभावपर्यायरूपतया याति परिणमतीति पर्यायः पर्यायस्य व्युत्पत्तिः । क्रमवर्तिनः पर्यायाः । सहभुवो गुणाः । गुण्यते पृथकियते द्रव्य द्रव्यात् यैस्ते गुणा इति ॥ २४२ ॥ ननु पर्याया विद्यमाना जायन्ते अविद्यमाना वा इत्याशङ्कां निराकुर्वन् गाथाद्वयमाहउत्पाद व्यय होता है। आशय यह है कि द्रव्य, गुण और पर्याय ये तीन जुदे जुदे नहीं हैं। अर्थात् जैसे सोंठ, मिर्च और पीपलको कूट छानकर गोली बनाली जाती है, वैसे द्रव्य, गुण और पर्यायको मिलाकर वस्तु नहीं बनी है । वस्तु तो एक अनादि अखण्ड पिण्ड है। उसमें गुणोंके सिवा अन्य कुछभी नहीं है । और वे गुण भी कभी अलग नहीं किये जा सकते, हां, उनका अनुभव मात्र अलग अलग किया जा सकता है। ऐसी स्थितिमें जब वस्तु परिणामी है तो गुण अपरिणामी कैसे हो सकते हैं ! क्योंकि गुणोंके अखण्ड पिण्डका नाम ही तो वस्तु है। अतः गुणोंमें मी परिणमन होता है। किन्तु परिणमन होनेपर भी ज्ञान गुण ज्ञानरूप ही रहता है, दर्शन या सुखरूप नहीं हो जाता । इसीसे सामान्य रूपसे गुणोंको अपरिणामी और विशेष रूपसे परिणामी कहा है । गुणोंके विकारका नाम ही पर्याय है । पर्यायके दो भेद हैं-खभाव पर्याय और विभावपर्याय । यहाँ छ:द्रव्योंकी पर्याय कहते हैं। अगुरुलघु गुणके विकारको खभाव पर्याय कहते हैं। उसके बारह भेद हैंछः वृद्धिरूप और छ: हानिरूप । अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि ये छः वृद्धिरूप खभावपर्याय हैं। और अनन्त भागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यात गुणहानि, असंख्यात गुणहानि, अनन्त गुणहानि ये छः हानिरूप खभावपर्याय हैं। नर नारक आदि पर्याय अथवा चौरासी लाख योनियाँ विभाव द्रव्यव्यंजनपर्याय हैं । मति आदि ज्ञान विभाव गुणव्यञ्जनपर्याय हैं। अन्तके शरीरसे कुछ न्यून जो सिद्ध पर्याय है वह स्वभाव द्रव्य व्यञ्जन पर्याय है । जीवका अनन्त चतुष्टयखरूप खभावगुणव्यञ्जनपर्याय है । ये सब जीवकी पर्याय हैं । पुद्गलकी विभावद्रव्यव्यंजनपर्याय व्यणुक आदि स्कन्ध हैं । रससे रसान्तर और गन्धसे गन्धान्तर विभावगुणव्यंजन : पर्याय हैं। पुद्गलका अविभागी परमाणु खभावद्रव्यव्यंजनपर्याय है। और उस परमाणुमें जो एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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