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________________ १७० खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २३९णो' उप्पजदि जीवो दव-सरूवेण णेवं णस्सेदि । तं चेव दव-मित्तं णिच्चत्तं जाण जीवस्स ॥ २३९ ॥ [छाया-न उत्पद्यते जीवः द्रव्यस्वरूपेण नैव नश्यति । तत् एव द्रव्यमानं नित्यत्वं जानीहि जीवस्य ॥] जाण जानीहि, जीवस्य आत्मनः तं चेव तदेव द्रव्यमानं सत्तास्वरूपं नित्यत्वं ध्रुवत्वं विद्धि त्वम् । जीवः द्रव्यस्वरूपेण सत्ताखरूपेण ध्रुवत्वेन जीवत्वेन पारिणामिकभावेन वा न उत्पद्यते न च नश्यति । उत्पादव्ययौ जीवस्य भण्येते चेत् तर्हि नूतनतत्त्वोत्पत्तिः स्वाङ्गीकृततत्त्वविनाशश्च जायते इति तात्पर्यम् । अनादिपारिणामिकभावेन निश्चयनयेन वस्तु न व्यति न चोदेति किंतु ध्रुवति स्थिरीसंपद्यते यः स ध्रुवः तस्य भावः कर्म वा ध्रौव्यम् इति ॥ २३९ ॥ अथ द्रव्यपर्याययोः खरूपं व्यनक्ति अण्णइ-रूवं दवं विसेस-रूवो हवेइ पज्जावो । दवं पि विसेसेण हि उप्पज्जदि णस्सदे सददं ॥ २४० ॥ [छाया-अन्वयिरूपं द्रव्यं विशेषरूपः भवति पर्यायः। द्रव्यम् अपि विशेषेण हि उत्पद्यते नश्यति सततम् ॥] द्रव्यं जीवादिवस्त अन्वयिरूपम अन्वयाः नरनारकादिपर्यायाः विद्यन्ते यस्य तत् अन्वयि तदेव रूपं वह तथोक्तम् । द्रवति द्रोष्यति अदुद्रुवत् खगुणपर्यायान् इति द्रव्यम् । स्वभावविभावपर्यायरूपतया परि समन्तात् याति परि. गच्छति परिप्राप्नोति परिणमतीति यः स पर्यायः स्वभावविभावपर्यायरूपतया परिप्राप्तिरित्यर्थः । अथवा पर्येति समये जाता है ॥ २३८ । आगे द्रव्योंमें ध्रुवत्वको बतलाते हैं । अर्थ-द्रव्य रूपसे जीव न तो नष्ट होता है और न उत्पन्न होता है अतः द्रव्यरूपसे जीवको नित्य जानो ॥ भावार्थ-जीव द्रव्य अथवा कोई भी द्रव्य न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है। यदि द्रव्यका नाश और द्रव्यका ही उत्पाद माना जाये तो माने गये छः द्रव्योंका नाश हो जायेगा और अनेक नये नये द्रव्य उत्पन्न हो जायेंगे। अतः अपने अनादि पारिणामिक खभावसे न तो कोई द्रव्य नष्ट होता है और न कोई नया द्रव्य उत्पन्न होता है । किन्तु सब द्रव्य स्थिर रहते हैं । इसीका नाम ध्रौव्य है। जैसे मृत्पिण्डका नाश और घट पर्यायकी उत्पत्ति होने पर भी मिट्टी ध्रुव रहती है । इसी तरह एक पर्यायका उत्पाद और पूर्व पर्यायका नाश होनेपर भी वस्तु ध्रुव रहती है । यह उत्पाद, व्यय और धौव्य ही द्रव्यका खरूप है ॥ २३९ ।। आगे द्रव्य और पर्यायका स्वरूप बतलाते हैं । अर्थ-वस्तुके अन्वयीरूपको द्रव्य कहते हैं और विशेषरूपको पर्याय कहते हैं । विशेष रूपकी अपेक्षा द्रव्य भी निरन्तर उत्पन्न होता और विनष्ट होता है । भावार्थ-वस्तुकी प्रत्येक दशामें जो रूप बराबर अनुस्यूत रहता है वही अन्वयी रूप है, और जो रूप बदलता रहता है वह विशेष रूप है । जैसे जीवकी नर नारक आदि पर्याय तो आती जाती रहती हैं और जीवत्व उन सबमें बराबर अनुस्यूत रहता है । अतः जीवत्व जीवका अन्वयी रूप है और नर नारक आदि विशेषरूप हैं । जब किसी बालकका जन्म हुआ कहा जाता है तो वह वास्तवमें मनुष्य पर्यायका जन्म होता है, किन्तु वह जन्म जीव ही लेता है इस लिये उसे जीवका जन्म कहा जाता है । वास्तवमें जीव तो अजन्मा है । इसी तरह जब कोई मरता है तो वास्तवमें उसकी वह पर्याय छूट जाती है । इसीका नाम मृत्यु है । किन्तु जीव तो सदा अमर है। अतः पर्यायकी अपेक्षा द्रव्य सदा उत्पन्न होता और विनष्ट होता है किन्तु द्रव्यत्वकी १ बण उ। २ ल म स गणेय। ३ ब जाणि। ४ ल म स ग पज्जाओ (उ)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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