SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २३४प्राप्नुयात् परद्रव्यक्षेत्रकालभावचतुष्टयस्वरूपं प्राप्नुयादिति यदि चेत्तर्हि सर्व द्रव्यम् अन्योन्यसंश्लेषात् एकस्वरूपं भवेत् । यदि चेतनद्रव्यम् अचेतनरूपेण परिणमति, अचेतनद्रव्यं चेतनद्रव्येण परिणमति, तदा सर्व द्रव्यम् एकात्मकम् एकस्वरूपं स्यात् । तथा चोक्तम् । 'सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृते। नोदितो दधि खादेति किमुष्टं नाभिधावति' ॥ २३३ ॥ अथ ब्रह्माद्वैतवादिनं दूषयति अहवा बंभ-सरूवं एक सवं पि मण्णदे' जदि हि । चंडाल-बंभणाणं तो ण विसेसो हवे को वि' ॥ २३४ ॥ [छाया-अथवा ब्रह्मस्वरूपम् एकं सर्वम् अपि मन्यते यदि हि। चाण्डालब्राह्मणानां ततः न विशेषः भवेत् कः अपि ॥] अथवा सर्वमपि जगत् ब्रह्मस्वरूपम् एकं मन्यते, एकमेव ब्रह्ममयं विश्वं स्वीकुरुते । 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म । 'नेह नानास्ति किंचन ।' 'आरामं तस्य पश्यति न तं पश्यति कश्चन ।' इति श्रुतेः । इति सर्व ब्रह्ममयं च यदि चेत् मन्यते तो तर्हि तेषां ब्रह्माद्वैतवादिनां कोऽपि चाण्डालब्राह्मणानां विशेषो न भवेत् । यदि चाण्डालोऽपि ब्रह्ममयः ब्राह्मणोऽपि चाण्डालमयः तर्हि तयोर्भेदः कथमपि न स्यात् । अथ अविद्यापरिकल्पितोऽयं भेद इति चेन्न, साविद्या ब्रह्मणः सकाशात् भिन्नाऽभिन्ना वा, एकानेका, सद्रूपासद्रूपा वा, इत्यादिखरूपेण विचार्यमाणा न व्यवतिष्ठते ॥ २३४ ॥ अथातो व्यापकं द्रव्यं मा भवतु, अणुमात्रं तत्त्वं भविष्यतीति वादिनं निराकरोति ॥ अणु-परिमाणं तच्चं अंस-विहीणं च मण्णदे जदि हि । तो संबंध-अभावो तत्तो वि ण कज-संसिद्धी ॥ २३५ ॥ खरूप होजायेंगे ॥ भावार्थ-यदि अपने चैतन्य स्वरूपमें स्थित जीव चैतन्य स्वरूपको छोड़कर पुद्गल आदि द्रव्योंके अचेतन स्वरूप हो जाये अर्थात् परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और पर भावको अपनाले तो सब द्रव्योंका कोई निश्चित स्वरूप न होनेसे सब एकरूप होजायेंगे । चेतन द्रव्य अचेतन रूप होजायेगा और अचेतन द्रव्य चेतन रूप होजायेगा और ऐसा होनेसे जब सब वस्तु सब रूप होजायेंगी और किसी वस्तुका कोई विशेष धर्म नहीं रहेगा तो किसी मनुष्यसे यह कहनेपर कि 'दही खाओ' वह ऊँटको भी खानेके लिये दौड़ पड़ेगा । क्यों कि उस अवस्थामें दही और ऊँटमें कोई भेद नहीं रहेगा । अतः खरूपमें स्थित वस्तु ही कार्यकारी है ॥ २३३ ॥ आगे ब्रह्माद्वैतवादमें दूषण देते हैं । अर्थ-अथवा यदि सभी वस्तुओंको एक ब्रह्म स्वरूप माना जायेगा तो चाण्डाल और ब्राह्मणमें कोई भेद नहीं रहेगा। भावार्थ-ब्रह्माद्वैतवादी समस्त जगतको एक ब्रह्मस्वरूप मानते हैं । श्रुतिमें लिखा हैं-'इस जगतमें एक ब्रह्म ही है, नानात्व बिल्कुल नहीं है । सब उस ब्रह्मकी पर्यायोंको ही देखते हैं। किन्तु उसे कोई नहीं देखता' । इस प्रकार यदि समस्त जगत एक ब्रह्ममय है तो चाण्डाल और ब्राह्मणमें कोई भेद नहीं रहेगा क्योंकि ब्राह्मण भी ब्रह्ममय है और चाण्डाल भी ब्रह्ममय है। शायद कहा जाये कि यह भेद अविद्याके द्वारा कल्पित है, वास्तविक नहीं है । तो वह अविद्या ब्रह्मसे भिन्न है अथवा अभिन्न है, एक है अथवा अनेक है, सद्रूप है अथवा असद्रूप है इत्यादि अनेक प्रश्न उत्पन्न होते हैं । यदि अविद्या ब्रह्मसे भिन्न है तो अद्वैतवाद नहीं रहता और यदि अविद्या ब्रह्मसे अभिन्न है तो ब्रह्म भी अविद्याकी तरह काल्पनिकही ठहरेगा । तथा अद्वैतवादमें कर्ता कर्म पुण्य पाप, इहलोक परलोक, बन्ध मोक्ष, विद्या अविद्या आदि भेद नहीं बन सकते । अतः जगत्को सर्वथा एक रूप मानना उचित नहीं है ॥ २३४ ॥ कोई कहता है कि एक व्यापक द्रव्य न १ ब मण्णिदे, स मण्णइ । २ ल ग कोइ । ३ ल म स ग संबंधाभावो । ४ ल स ग संसिद्धि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy