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________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २३२परिणमिष्यमाणः (?) सन् सामग्रीषु जिनाचारसद्वतधारणसामायिकधर्मध्यानादिलक्षणासु प्रवर्तमानः पश्चात् देवादि. पर्यायान् समाश्रयति, तथा कश्चिजीवः नरनारकतिर्यक्पर्याय परिणमिष्यमाणः सन् पुण्यपापादिवाप्तव्यसनबढारम्भपरिग्रहादिमायाकूटकपटच्छलच्छमादिसामग्रीषु प्रवर्तमानः पश्चात् नरनारकतिर्यक्पर्यायान् प्राप्नोतीत्यर्थः ॥ २३१॥ अथ जीवः खव्यस्खक्षेत्रखकालखभावेषु स्थितः एव कार्य विदधाति इत्यावेदयति स-सरूवत्थो जीवो कजं साहेदि वट्टमाणं पि । खेत्ते' एक्कम्मि ठिदो णिय-दवे संठिदो चेव ॥ २३२॥ [छाया-स्वस्वरूपस्थः जीवः कार्य साधयति वर्तमानम् अपि । क्षेत्रे एकस्मिन् स्थितः निजद्रव्ये संस्थितः चैव ॥] जीवः इन्द्रियादिद्रव्यप्राणैः सुखसत्ताचैतन्यबोधभावप्राणैश्चाजिजीवत् जीवति जीविष्यतीति जीवः कार्य नूतननूतननरनारकादिपर्यायं वर्तमानम्, अपिशब्दादतीतानागतं च, कार्य साधयति निर्मिनोति निर्मापयति निष्पादयतीत्यर्थः । कथंभूतो जीवः । निजे द्रव्ये संस्थितः चेतनाविष्टखात्मद्रव्ये स्थिति प्राप्तः सन् नात्मान्तरद्रव्ये संस्थित एवकारार्थः । एकस्मिन्नेव पर्यायोंको उत्पन्न करता है । जैसे, कोई जीव देव पर्यायरूप परिणमन करनेके लिये पहले समीचीन व्रतोंका धारण, सामायिक, धर्मध्यान आदि सामग्रीको अपनाता है पीछे वर्तमान पर्यायको छोड़कर देवपर्याय धारण करता है । कोई जीव नारकी अथवा तिर्यश्च पर्यायरूप परिणमन करनेके लिये पहले सात व्यसन, बहुत आरम्भ, बहुत परिग्रह, मायाचार कपट छल छम वगैरह सामग्रीको अपनाता है पीछे नारकी अथवा तिर्यश्च पर्याय धारण करता है । इस तरह अनादि निधन जीवमें भी कार्यकारणभाव बन जाता है ॥ २३१ ॥ आगे कहते हैं कि जीव खद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावमें स्थित रहकर ही कार्यको करता है । अर्थ-स्वरूपमें, खक्षेत्रमें, स्वद्रव्यमें और खकालमें स्थित जीव ही अपने पर्यायरूप कार्यको करता है ॥ भावार्थ-जो इन्द्रिय आदि द्रव्यप्राणोंसे या सुख सत्ता चैतन्य और ज्ञानरूप भाव प्राणोंसे जीता है, जिया था अथवा जियेगा उसे जीव कहते हैं । वह जीव नवीन नवीन नर नारक आदि रूप वर्तमान पर्यायका और 'अपि' शब्दसे अतीत और अनागत पर्यायोंका कर्ता है । अर्थात् वह स्वयं ही अपनी पर्यायोंको उत्पन्न करता है । किन्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावमें स्थित होकर ही जीव अपनी पर्यायको उत्पन्न करता है । अर्थात् अपने चैतन्य स्वरूप आत्मद्रव्यमें स्थित जीव ही अपने कार्यको करता है, आत्मान्तरमें स्थित हुआ जीव स्वकार्यको नहीं करता । अपनी आत्मासे अवष्टब्ध क्षेत्रमें स्थित जीवही खकार्यको करता है, अन्य क्षेत्रमें स्थित जीव स्वकार्यको नहीं करता । अपने ज्ञान, दर्शन, सुख, सत्ता आदि स्वरूपमें स्थित जीवही अपनी पर्यायको करता है, पुद्गल आदि स्वभावान्तरमें स्थित जीव अपनी पर्यायको नहीं करता । तथा खकालमें वर्तमान जीव ही अपनी पर्यायको करता है, परकालमें वर्तमान जीव खकार्यक्रो नहीं करता। आशय यह है कि प्रत्येक वस्तुका वस्तुपना दो बातोंपर निर्भर हैएक वह स्वरूपको अपनाये, दूसरे वह पररूपको न अपनाये । इन दोनोंके बिना वस्तुका वस्तुत्व कायम नहीं रह सकता । जैसे, खरूपकी तरह यदि पररूपसे भी वस्तुको सत् माना जायेगा तो चेतन अचेतन हो जायेगा। तथा पररूपकी तरह यदि खरूपसे भी वस्तुको असत् माना जायेगा तो वस्तु सर्वथा शून्य हो जायेगी । खद्रव्यकी तरह परद्रव्यसे भी यदि वस्तुको सत् माना १लम सग खित्ते । २ बल सगएकम्मि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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