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________________ -२२३] १०. लोकानुप्रेक्षा कालः पुनः मनुष्यक्षेत्रे स्फुटं ज्ञातव्यः । कुतः । ज्योतिष्काणां चारे स समान इति कारणात् । 'ववहारो पुण तिविहो तीदो वर्दृतगो भविस्सो दु। तीदो संखेज्जावलिहदसिद्धाणं पमाणो दु॥' व्यवहारकालः पुननिविधः। अतीतानागतवर्त. मानश्चेति । तु पुनः, तत्रातीतः संख्यातावलिगुणितसिद्धराशिभवति ३।२१। कुतः। अष्टोत्तरषट्शतजीवानां मुक्तिगमनकालोऽष्टसमयाधिकषण्मासाः तदा सर्वजीवराश्यनन्तैकभागमुक्तजीवानां कियानिति त्रैराशिकागतस्य तत्प्रमाणत्वात् । प्र६०८ फ माइ ३ लब्धं ३।२। 'समयो हु वट्टमाणो जीवादो सव्वपोग्गलादो वि। भावी अणतगुणिदो इदि ववहारो हवे कालो । वर्तमानकालः खलु एकसमयः, भाविकालः सर्वजीवराशितः १६ सर्वपुद्गलराशितो १६स, ऽप्यनन्तगुण: १६ खख इति व्यवहारकालत्रिविधो भणितः । इति धर्माधर्माकाशकालद्रव्यचतुष्टयनिरूपणं समाप्तम् ॥ २२१ ॥ अथ द्रव्याणां कार्यकारणपरिणामभावं निरूपयति- . पुव-परिणाम-जुत्तं कारण-भावेण वट्टदे दव्वं । उत्तर-परिणाम-जुदं तं चिय कर्ज हवे णियमा ॥ २२२॥ [छाया-पूर्वपरिणामयुक्त कारणभावेन वर्तते द्रव्यम् । उत्तरपरिणामयुकं तत् एव कार्य भवेत् नियमात् ॥] द्रव्यं जीवादिवस्तु पूर्वपरिणामयुकं पूर्वपर्यायाविष्टं कारणभावेन उपादानकारणत्वेन वर्तते । तदेव द्रव्य जीवादिवस्तु उत्तरपरिणामयुक्तम् उत्तरपर्यायाविष्टं तदेव द्रव्यं पूर्वपर्यायाविष्टं कारणभूतं मणिमन्त्रादिना अप्रतिबद्धसामर्थ्य कारणान्तरावैकल्येम उत्तरक्षणे कार्य निष्पादयत्येव । यथा आतानवितानात्मकातन्तवः अप्रतिबद्धसामाः कारणान्तरावै अन्त्यक्षण प्राप्ताः पटस्य कारणम् , उत्तरक्षणे पटस्तु कार्यम् । तथा चोक्तमष्टसहभ्याम् । 'कार्योत्पादः क्षयो हेतोनियमात् लक्षणात् पृथक् इति ॥ २२२ ॥ अथ त्रिष्वपि कालेषु वस्तुनः कार्यकारणभाव निश्चिनोति कारण-कज्ज-विसेसा तीसु वि कालेसु हुंति' वत्थूणं । एकेकम्मि य समए पुवुत्तर-भावमासिज ॥ २२३ ॥ संख्यात आवलीसे सिद्धराशिको गुणा करनेपर जो प्रमाण आये वही अतीतकालका प्रमाण है। इसकी उपपत्ति इस प्रकार है-यदि ६०८ जीवोंके मुक्तिगमन का काल छ माह और आठ समय होता है तो समस्त जीवराशिके अनन्तवें भाग प्रमाण मुक्त जीवोंके मुक्तिगमनका काल कितना है ? इस प्रकार त्रैराशिक करनेपर जो प्रमाण आता है वही अतीतकालका प्रमाण है। वर्तमानकालका प्रमाण एक समय है । और समस्त जीव राशि और समस्त पुद्गल राशिसे अनन्तगुना भाविकाल है। इस प्रकार व्यवहार कालका प्रमाण जानना चाहिये । इस तरह धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्यका वर्णन समाप्त हुआ ॥ २२१ ॥ अब द्रव्योंके कार्यकारण भावका निरूपण करते हैं । अर्थ-पूर्व परिणाम सहित द्रव्य कारण रूप है और उत्तर परिणाम सहित द्रव्य नियमसे कार्यरूप है ॥ भावार्थप्रत्येक द्रव्यमें प्रतिसमय परिणमन होता रहता है, यह पहले कहा है। उसमेंसे पूर्वक्षणवर्ती द्रव्य कारण होता है और उत्तरक्षणवर्ती द्रव्य कार्य होता है। जैसे लकड़ी जलनेपर कोयला होजाती और कोयला जलकर राख होजाता है । यहाँ लकड़ी कारण है और कोयला कार्य है । तथा कोयला कारण और राख कार्य है क्योंकि आप्तमीमांसामें भगवान समन्तभद्रने कहा है कि कारणका विनाश ही कार्यका उत्पाद है । अतः पहली पर्याय नष्ट होते ही दूसरी पर्याय उत्पन्न होती है। इसलिये पूर्वपर्याय उत्तर पर्यायका कारण है और उत्तर पर्याय पूर्व पर्यायका कार्य है । इस तरह प्रत्येक द्रव्यमें कार्य कारण भावकी परम्परा समझ लेनी चाहिये ॥ २२२ ॥ आगे तीनों कालोंमें वस्तुके कार्य कारण १कम स तिस्सु, ग तस्सु । २ल स होति (१)। ३ म मासेज्जा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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