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________________ १४८ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २१४नास्ति पा । नास्ति चेत्, किं केनाक्काशः क्रियते यथा पाषाणाद्भिन्नात् पाषाणादिपिण्डस्य प्रवेशो न । षष्णां द्रव्याणाम् आकाशस्यावगाहनाशक्तिरस्ति चेत्, तर्हि तदुत्पत्तिदर्शनीया । तथा अन्येन तटस्थेन पुंसा पृच्छयते । भो, भगवन् केवलज्ञानस्थानन्तभागप्रमिताकाशद्रव्यम्, तथाप्यनन्तभागे सर्वमध्यमप्रदेशो लोकस्तिष्ठति सोऽसंख्यातप्रदेशः, तत्रासंख्यातप्रदेशलोकेऽन्तानन्तजीवाः १६, तेभ्योऽप्यनन्तगुणाः पुद्गलाः १६ ख, लोकाकाशप्रमितासंख्येयकालगुणद्रव्याणि, प्रत्येक लोकाकाशप्रमाणं धर्माधर्मद्वयम् इत्युक्तलक्षणाः पदार्थाः कथमवकाशं लभन्ते इति ॥ २१३ ॥ भगवान् खामी गाथाद्वयेन प्रत्युत्तरमाह सव्वाणं दव्वाणं अवगाहण-सत्ति' अत्थि परमत्थं । जह भसम-पाणियाणं जीव-पएसाण बहुयाणं ॥ २१४ ॥ [छाया-सर्वेषां द्रव्याणाम् अवगाहनशक्तिः अस्ति परमार्थतः। यथा भस्मपानीययोः जीवप्रदेशानां जानीहि बहुकानाम् ॥] परमार्थतः निश्चयतः सर्वेषां द्रव्याणां जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशकालानां पूर्वोक्तप्रमितसंख्योपेतानाम् अवगाहनशक्तिरस्ति, अवकाशदानसमर्थता विद्यते। यथा भस्मपानीययोः यथा भस्ममध्ये पानीयस्यावगाहोऽस्ति तथा बहुकानां जीवप्रदेशानाम् आकाशे अवकाशकं जानीहि । तथाहि, यथा घटाकाशस्य मध्ये घटमृत् भस्म माति तावन्मात्रजलं माति तावन्मात्रा शकेरा माति तावन्मात्रा सूचिर्माति, तथा सर्वद्रव्याणि लोकाकाशे परस्परम् अवकाशन्ते संमान्ति । तथा, एकप्रदीपप्रकाशे नानाप्रदीपप्रकाशवत्, एकगूढरसनागगद्याणके बहुसुवर्णवत्, पारदगुटिकायां दग्धवत्, इत्यादिदृष्टान्तेन विशिष्टावगाहनशक्तिवशादसंख्यातप्रदेशेऽपि लोके सर्वव्याणामवस्थानमवगाहो न विरुध्यते इति ॥ २१४॥ आकाश द्रव्य कहते हैं । लोक और अलोकके मेदसे एक ही आकाश द्रव्यके दो भाग होगये हैं । जितने आकाशमें धर्म, अधर्म, जीव, पुद्गल और काल द्रव्य पाये जाते हैं उसे लोकाकाश कहते हैं । क्योंकि जहाँ जीवादि द्रव्य पाये जावें वह लोक है ऐसी लोक शब्दकी व्युत्पत्ति है । और जहाँ जीवादि द्रव्य न पाये जायें, केवल आकाश द्रव्य ही पाया जाये उसे अलोकाकाश कहते हैं ॥२१३॥ यहाँ शङ्काकार शङ्का करता है कि सब द्रव्योंमें अवगाहन शक्ति है या नहीं ? यदि नहीं है तो कौन किसको अवकाश देता है ? और यदि है तो उसकी उत्पत्ति बतलानी चाहिये । दूसरी शङ्का यह है कि आकाश द्रव्यको केवलज्ञानके अविभागी प्रतिच्छेदोकें अनन्तवें भाग बतलाया है । और उसकें मी अनन्तवें भाग लोकाकाश है । वह असंख्यात प्रदेशी है । उस असंख्यात प्रदेशी लोकमें अनन्तानन्त जीव, जीवोंसे भी अनन्तगुने पुद्गल, लोकाकाशके प्रदेशोंके बराबर असंख्यात कालाणु, लोकाकाशके ही बराबर धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य कैसे रहते हैं ! ग्रन्थकार खामी कार्तिकेय दो गाथाओंके द्वारा इन शङ्काका समाधान करते हैं। अर्थ-वास्तवमें सभी द्रव्योंमें परस्पर अवकाश देनेकी शक्ति है । जैसे भस्ममें और जलमें अवगाहन शक्ति है वैसे ही जीवके असंख्यात प्रदेशोंमें जानों ॥ भावार्थजीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, समी द्रव्योंमें निश्चयसे अवगाहन शक्ति है । जैसे पानीसे भरे हुए घड़ेमें राख समा जाती है वैसे ही लोकाकाशमें सब द्रव्य परस्परमें एक दूसरेको अवकाश देते हैं । तथा जैसे एक दीपकके प्रकाशमें अनेक प्रदीपोंका प्रकाश समा जाता है, या एक प्रकारके रसमें बहुतसा सोना समाया रहता है अथवा पारदगुटिकामें दग्ध होकर अनेक वस्तुएँ समाविष्ट रहती हैं, वैसे ही विशिष्ट अवगाहन शक्तिके होनेसे असंख्यात प्रदेशी भी लोकमें सब द्रव्योंके रहनेमें कोई १व सची, स अवगाहणदाणसति परमत्थं, ग सति परमत्वं । २ मस परसाण बाण बहुमआणं, ग पवेसाण जाण बहमाणं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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