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________________ १३४ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १९९मेष्ठिनः द्वितीयपरमात्मानः । ज्ञानं केवलज्ञानं तत्साहचर्यात् केवलदर्शनं च तदेव शरीरं येषां ते ज्ञानशरीराः । पुनः किंभूताः। सर्वोत्तमसौख्यसंप्राप्ताः, सर्वोत्कृष्टानन्तसातं तत्साहचर्यात् अनन्तवीर्यं च प्राप्ताः। तथा सम्यक्त्वाद्यष्टगुणान अनन्तगुणान् वा प्राप्ताः सिद्धाः। “अट्टविहकम्ममुक्के अटूगुणड्दुसरे वंदे। अट्ठमपुढविणिविटे णिट्टियकज्जे य वंदिमो णिचं ॥" इत्यादिगुणगणविशिष्टाः परमात्मानो भवन्ति ॥ १९८ ॥ अथ परशब्दं व्याख्याति णीसेस-कम्म-णासे अप्प-सहावेण जा समुप्पत्ती । कम्मज-भाव-खए वि य सा वि य पत्ती' परा होदि ॥ १९९ ॥ [छाया-निःशेषकर्मनाशे आत्मस्वभावेन या समुत्पत्तिः। कर्मजभावक्षये अपि च सा अपि च प्राप्तिः परा भवति ॥] अपि च पुनः, सा पत्ती जीवानां प्राप्तिः परा उत्कृष्टा भवति । सा का। या आत्मस्वभावेन आत्मखरूपेण शुद्धबुद्धकपरमानन्दखखरूपेण समुत्पत्तिः सम्यग् निष्पत्तिः । क्व सति । निःशेषकर्मनाशे सति, समस्तज्ञानावरणादिकर्मणां अरहन्त और सर्वोत्तम सुखको प्राप्त कर लेनेवाले तथा ज्ञानमय शरीरवाले सिद्ध परमात्मा हैं । भावार्थ-रस, रक्त, मांस, मेद, हड्डी, मज्जा और शुक्र ये सात धातुएं हैं और मल मूत्र वगैरह सात उपधातुएँ हैं । इन धातु उपधातुओंसे रहित परम औदारिक शरीर वाले, तथा चौंतीस अतिशय, आठ प्रातिहार्य और अनन्तचतुष्टयसे सहित अर्हन्तदेव होते हैं । गौतम स्वामीने भी कहा है-"मोह आदि समस्त दोषरूपी शत्रुओंके घातक, सर्वदा के लिये ज्ञानावरण और दर्शनावरण रूपी रजको नष्ट कर डालनेवाले तथा अन्तराय कर्मसे रहित, अत एव पूजाके योग्य अर्हन्त भगवानको नमस्कार हो।" ये तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती जिनेन्द्र देव तथा मूक केवली वगैरह, जिन्होंने कि केवलज्ञान और केवल दर्शनके द्वारा भूत, वर्तमान और भावी जीव आदि सब पदार्थोकी पर्यायोंको एक साथ देखा और जाना है, वे परमात्मा हैं। दूसरे परमात्मा सिद्ध परमेष्ठी हैं, जिनका केवल ज्ञान और केवल दर्शन ही शरीर है तथा जो सबसे उत्कृष्ट सुख, और उसके साथी अनन्तवीर्यसे युक्त हैं, और सम्यक्त्व आदि आठ गुणोंसे अथवा अनन्तगुणोंसे सहित हैं। कहा मी है-"जो आठों कोंसे मुक्त हो चुके हैं, आठ गुणोंसे विशिष्ट हैं और आठवीं पृथिवीके ऊपर स्थित सिद्धालयमें विराजमान हैं तथा जिन्होनें आप सब कर्तव्य पूरा कर लिया है उन सिद्धोंकी सदा वन्दना करता हूं।" सारांश यह है कि अर्हन्त देव सकल (शरीर सहित) परमात्मा हैं और सिद्ध विकल (शरीर रहित) परमात्मा हैं ॥ १९८ ॥ अब 'परा' शब्दका व्याख्यान करते हैं । अर्थ-समस्त कर्मोंका नाश होनेपर अपने स्वभावसे जो उत्पन्न होता है उसे परा कहते हैं। और कर्मोंसे उत्पन्न होने वाले भावोंके क्षयसे जो उत्पन्न होता है उसे भी परा कहते हैं ॥ भावार्थ-समस्त ज्ञानावरण आदि कर्मोंका क्षय होनेपर जीवको जो प्राप्ति होती है वह परा अर्थात् उत्कृष्ट है । तथा कर्म जन्य औदयिक क्षायोपश मिक और औपशमिक जो राग द्वेष मोह आदि भाव हैं, उनका पूरी तरहसे नाश हो जानेपर मी जो प्राप्ति होती है यह भी परा अर्थात् उत्कृष्ट है। वह 'परा' अर्थात् उत्कृष्ट, 'मा' अर्थात् बाध और अभ्यन्तर रूप लक्ष्मी जिनके होती है वे परमात्मा होते हैं । विशेष अर्थ इस प्रकार है । 'परा' अर्थात् उत्कृष्ट, 'मा' अर्थात् लक्ष्मी जिसके हो उस आत्माको परमात्मा कहते हैं। यह परमात्मा १. म स गणिस्सेस। २म मुत्ती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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