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________________ -१८४] १०. लोकानुप्रेक्षा १२१ खसंवेदनप्रत्यक्ष स्वानुभवप्रत्यक्ष मिति यावत् । स चार्वाकः जीवमात्मानं न जानन् सन् जीवाभावं जीवस्यात्मनः अभावं नास्तित्वं कहं कथं करोति केन प्रकारेण विदधाति । यो यं न वेत्तिस तस्याभावं कर्तुं न शक्नो तीत्यर्थः ॥१८२॥ अथ युक्त्या चार्वाकं प्रति जीवसद्भाव विभावयति जदि ण य हवेदि जीवो ता को वेदेदि सुक्ख-दुक्खाणि । इंदिय-विसया सव्वे को वा जाणदि विसेसेण ॥ १८३ ॥ [छाया-यदि न च भवति जीवः तत् कः वेत्ति सुखदुःखे । इन्द्रियविषयाः सर्वे कः वा जानाति विशेषेण ॥1 यदि चेत् जीवो न च भवति तो तर्हि कः जीवः सुखदुःखानि वेत्ति जानाति । वि पुनः, विशेषेण विशेषतः, सर्वे इन्द्रियविषयाः स्पर्श ८ रस ५ गन्ध २ वर्ण ५ शब्द ७ रूपाः। प्राकृतत्वात् प्रथमा अर्थतस्तु द्वितीया विभक्तिः विलोक्यते । तान् इन्द्रियविषयान् को जानाति को वेत्ति । आत्मनोऽभावे प्रत्यक्षकप्रमाणवादिनश्चार्वाक कथं स्यात् ॥ १८३ ॥ अथात्मनः सद्भावे उपपत्तिमाह संकप्प-मओ जीवो सुह-दुक्खमयं हवेइ संकप्पो। तं चिय वेददि जीवो देहे मिलिदो वि सम्वत्थ ॥ १८४ ॥ और कहता है कि जीव नहीं है । यह चार्वाक जीवको विना जाने कैसे.कहता है कि जीव नहीं है ? क्योंकि जो जिसे नहीं जानता वह उसका अभाव नहीं कर सकता । चार्वाक केवल एक प्रत्यक्ष प्रमाण ही मानता है। उसके मतानुसार जो वस्तु प्रत्यक्ष अनुभवमें आती है केवल वही सत् है और जिसका प्रत्यक्ष नहीं होता वह असत् है । उसकी इस मान्यताके अनुसार भी जीवका सद्भाव ही सिद्ध होता है क्योंकि प्रत्येक व्यक्तिको 'मैं हूं' ऐसा अनुभव होता है । यह अनुभव मिथ्या नहीं है क्योंकि इसका कोई बाधक नहीं है। सन्दिग्ध भी नहीं है, क्योंकि जहां 'सीप है या चांदी' इस प्रकारकी दो कोटियां होती हैं वहां संशय होता है। शायद कहा जाये कि 'मैं हूं' इस अनुभवका आलम्बन शरीर है, किन्तु यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'मैं हूं' यह अनुभव बिना बाह्य इन्द्रियोंकी सहायताके मनसे ही होता है, शरीर तो बाह्य इन्द्रियोंका विषय है । अतः वह इस प्रकारके खानुभवका विषय नहीं हो सकता । अतः 'मैं हूँ' इस प्रकारके प्रत्ययका आलम्बन शरीरसे भिन्न कोई ज्ञानवान् पदार्थ ही हो सकता है । वही जीव है । दूसरे, जब चार्वाक जीवको प्रत्यक्ष प्रमाणका विषय ही नहीं मानता तो वह बिना जाने यह कैसे कह सकता है कि 'जीव नहीं है । अतः चार्वाकका मत ठीक नहीं है ॥ १८२ ।। अब ग्रन्थकार युक्तिसे चार्वाकके प्रति जीवका सद्भाव सिद्ध करते हैं। अर्थ-यदि जीव नहीं है तो सुख आदिको कौन जानता है ? तथा विशेष रूपसे सब इन्द्रियोंके विषयोंको कौन जानता है। भावार्थ-यदि जीव नहीं है तो कौन जीव सुख दुःख वगैरहको जानता है । तथा खास तौरसे इन्द्रियोंके विषय जो ८ स्पर्श, ५ रस, २ गन्ध, ५ वर्ण, और ७ शब्द हैं, उन सबको मी कौन जानता है ? क्योंकि आत्माके अभावमें एक प्रत्यक्ष प्रमाणवादी चार्वाकका इन्द्रियप्रत्यक्ष भी कैसे बन सकता है ? यहां गाथामें 'इंदियविसया सव्वे' यह प्राकृत भाषामें होनेसे प्रथमा विभक्ति है किन्तु अर्थ की दृष्टि से इसे द्वितीया विभक्ति ही लेना चाहिये ॥ १८३ ॥ फिर भी आत्माके सद्भावमें युक्ति देते हैं । अर्थ-यदि जीव संकल्पमय है और संकल्प सुखदुःखमय है तो सर्व शरीरमें मिला हुआ १ग बेददे। कार्तिके. १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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