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________________ -१७५] १०. लोकानुप्रेक्षा ११३ [छाया-सर्वजघन्यः देहः लब्ध्यपूर्णानां सर्वजीवानाम् । अङ्गलासंख्यभागः अनेकमेदः भवेत् स अपि ॥1 लब्ध्यपर्याप्तानां सर्वजीवानाम् एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियासंज्ञिसंज्ञिप्राणीनां सर्वजघन्यो देहो भवति शरीरावगाहः सर्वजघन्यः स्यात् । स कियन्मात्र इति चेत्, अंगुल असंखभागो घनाकुलस्यासंख्यातभागमात्रः । सोऽप्यवगाहः एकप्रकारो अनेकप्रकारो वा इत्युक्तं आह । अनेकभेदः अनेकप्रकारः स्यात् । गोम्मटसारे मत्स्य चतुःषष्टिजीवसमासावगाहः घनाङ्गुलस्यासंख्येयभागः अनेकप्रकारः अवलोकनीयः ॥ १७३॥ अथ द्वीन्द्रियादीनां जघन्यावगाहं गाथाद्वयेनाह वि-ति-चउ-पंचक्खाणं जहण्ण-देहो हवेइ पुण्णाणं । अंगुल-असंख-भागो संख-गुणो सो वि उवरुवरि ॥ १७४॥ [छाया-द्वित्रिचतुःपञ्चाक्षाणां जघन्यदेहः भवति पूर्णानाम् । अङ्गुलासंख्यभागः संख्यगुणः स अपि उपर्युपरि ॥] द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाणां द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियजीवानाम् । कथंभूतानाम् । पूर्णानां पर्याप्तकाना, जघन्यदेहः जघन्यशरीरावगाहः, अङ्गुलासंख्यातभागः । घनाङ्गुलस्यासंख्यातभागमात्रोऽपि उपर्युपरि सोऽपि तत्संख्यातगुणो भवति । द्वीन्द्रियादिपर्याप्तकस्य जघन्यावगाहः ॥त्री. प. ज. ६, च. प. ज.६७ , प. प. ज.. . ॥ अपर्याप्तद्वीन्द्रियादीनाम् उत्कृष्टशरीरावगाहा जघन्यतः किंचित्किंचिदधिकक्रमो ज्ञातव्यः॥ १७४ ॥ पूर्वकथितपर्याप्तकद्वीन्द्रियादीनां स्वामिनिर्देशमाह अणुद्धरीय कुंथो मच्छी काणा य सालिसित्थो य। पजत्ताण तसाणं जहण्ण-देहो विणिहिट्ठो ॥ १७५ ॥ ऊंचाई बतलाते हैं । अर्थ-लब्ध्यपर्याप्तक सब जीवोंका सबसे जघन्य शरीर होता है, जो घनांगुलके असंख्यातवें भाग है । तथा उसके भी अनेक भेद हैं ॥ भावार्थ-लब्ध्यपर्याप्तक एकेन्द्रिय, लब्ध्यपर्यातक दोइन्द्रिय, लब्ध्यपर्याप्तक तेइन्द्रिय, लब्ध्यपर्याप्तक चौइन्द्रिय, लब्ध्यपर्याप्तक असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय और लब्ध्यपर्याप्तक संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवोंका शरीर सबसे जघन्य होता है । उसकी अवगाहना धनांगुल के असंख्यातवें भाग होती है । किन्तु उसमें भी अनेक भेद हैं । गोम्मटसार जीवकाण्डके जीवसमास अधिकारमें मत्स्यरचनाका कथन करते हुए चौसठ जीवसमासोंकी अवगाहना घनांगुलके असंख्यात भाग बतलाई है और उसके अनेक अवान्तर भेद बतलाये हैं। सो वहांसे जानलेना चाहिये ॥ १७३ ॥ अब दोइन्द्रिय आदि जीवोंकी जघन्य अवगाहना दो गाथाओंसे कहते हैं । अर्थ-दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंकी जघन्य अवगाहना अंगुलके असंख्यातवें भाग है । सो भी ऊपर ऊपर संख्यातगुणी है ॥ भावार्थ-दोइन्द्रिय पर्याप्त, तेइन्द्रिय पर्याप्त, चौइन्द्रिय पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके शरीरकी जघन्य अवगाहना यद्यपि सामान्यसे धनांगुलके असंख्यातवें भाग हैं किन्तु ऊपर ऊपर वह संख्यातगुणी संख्यातगुणी होती गई है। अर्थात् दोइन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना घनांगुलके असंख्यातवें भाग है । उससे संख्यात गुणी तेइन्द्रिय पर्याप्तक जीवके शरीरकी अवगाहना है । तेइन्द्रियसे संख्यातगुणी चौइन्द्रिय पर्याप्तक जीवकी अवगाहना है । चौइन्द्रियसे संख्यातगुणी पश्चेन्द्रिय पर्याप्तककी- अवगाहना है । पर्याप्त दो इन्द्रिय आदिके शरीरकी उत्कृष्ट अवगाहना जघन्य अवगाहनासे कुछ अधिक कुछ अधिक १ ग उवरुवरि । २ ब अण्णुधरीयं, ल म आणुध०, स आणुद्ध, ग अणुध०। ३ ल ग कुंथुमच्छा, म स कुंथं ()। ४ ब देहप्रमाणं । लोय इत्यादि । कात्तिके.१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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