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________________ -१६०] १०. लोकानुप्रेक्षा नरके नारका भवन्ति । तेभ्यश्च द्वितीयपृथिवीनारकेभ्यः प्रथमपृथिवीनारकाः सन्तः रत्नप्रभाधानाम्नि प्रथमनरके घमाङ्गुलद्वितीयमूलगुणितजगच्छेणिमात्रा नारका भवन्ति- २ एकत्रीकृतषड्नारकसंख्याहीना प्रथमनरके नारकसंख्या भवति । सामान्यनारकाः सर्वपृथ्वीजाः घनाङ्गुलद्वितीयवर्गमूलगुणितजगच्छ्रेणिप्रमिता भवन्ति-२ मू। हिटिट्ठा अधोऽधो नारका बहुदुःखा भवन्ति । प्रथमनरकदुःखात् द्वितीये नरके अनन्तगुणं दुःखम् , एवं तृतीयादिषु । रयणपहा-२-१, सकरा १२ वाल , पंक, धूम, तमस्तम २, सर्वनारका-२ मू ॥ १५९॥ कप्प-सुरा भावणया विंतर देवा तहेव जोइसिया । बे हुंति असंख-गुणा संख-गुणा होति जोइसिया ॥ १६०॥' [छाया-कल्पसुराः भावनकाः व्यन्तरदेवाः तथैव ज्योतिष्काः । द्वौ भवतः असंख्यगुणौ संख्यगुणाः भवन्ति ज्योतिष्काः॥1 कप्पसुरा कल्पवासिनो देवाः षोडशवर्गनवप्रैवेयकनवानुदिशपश्चानुत्तरजाः विमानवासिनः सुराः असंख्यातश्रेणिप्रमिताः, साधिकघनाङ्गलहतीयमूलगुणितश्रेणिमात्राः-३ | तेभ्यश्च वैमानिकेभ्यः देवेभ्यः असंख्यातगुणा असुरकुमारादिदशविधा भवनवासिनो देवाः घनाङ्गुलप्रथममूलगुणितश्रेणिमात्राः-१। तेभ्यो भवनेभ्यः असंख्यातगुणाः किंनरायष्ट प्रकारा व्यन्तरदेवाः, त्रिशतयोजनकृतिभकजगत्प्रतरमात्राः ४६५%3D८१।१०। तेभ्यश्च व्यन्तरदेवेभ्यः सूर्यचन्द्रमसौ प्रहनक्षत्रतारकाः पञ्चप्रकाराः ज्योतिष्काः संख्यातगुणा, बेसदछप्पण्ण-घनाङ्गुल कृतिभकजगत्प्रतरमात्राः ४१६५= । अत्र चतुर्णिकायदेवेषु कल्पवासिदेवतः भावनव्यन्तरदेवानां द्वौ राशी असंख्यातगुणौ स्तः । व्यन्तरेभ्यः ज्योतिष्कदेवराशिः संख्यातगुणः क ३ भ-१ व्यं ४।६५८१ । १० । इत्यल्पबहुत्वं गतम् । अथैकेन्द्रियादिजीवानामुत्कृष्टमायुर्गाथात्रयेण निगदति ॥ १६॥ .. नरकमें अनन्तगुणा दुःख है । इसी तरह तीसरे आदि नरकोंमें भी जानना ॥ यहाँ जो प्रथम द्वितीय आदि वर्गमूल कहा है उसका उदाहरण इस प्रकार है । जैसे दो सौ छप्पनका प्रथमवर्गमूल सोलह हैं; क्योंकि सोलहका वर्ग दो सौ छप्पन होता है। दूसरा वर्गमूल चार है । क्योंकि चारका वर्ग १६ और १६ का वर्ग २५६ होता है । तथा तीसरा वर्गमूल दो है। अब यदि जगतश्रेणिका प्रमाण २५६ मान लिया जाये तो उसके तीसरे वर्गमूल दो का दो सौ छप्पन में भाग देनेसे १२८, दूसरे वर्गमूल ४ का भाग देनेसे चौसठ और प्रथम वर्गमूल १६ का भाग देनेसे १६ आता है। इसी तरह प्रकृतमें समझना ॥ १५९ ॥अर्थ-कल्पवासी देवोंसे भवनवासी देव और व्यन्तर देव ये दो राशियाँ तो असंख्यात गुणी हैं। तथा ज्योतिषी देव व्यन्तरोंसे संख्यातगुणे हैं ॥ भावार्थ-सोलह खर्ग, नौ अवेयक, नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानोंके वासी देवोंको कल्पवासी कहते हैं। कल्पवासी देव धनांगुलके तीसरे वर्गमूल से गुणित जगतश्रेणिके प्रमाणसे अधिक हैं । इन कल्पवासी देवोंसे असंख्यात गुने असुर कुमार आदि दस प्रकारके भवनवासी देव हैं । सो भवनवासी देव धनांगुलके प्रथम वर्गमूलसे गुणित जगतश्रेणि प्रमाण हैं । भवनवासियोंसे असंख्यातगुने किन्नर आदि आठ प्रकारके व्यन्तर देव हैं, तीन सौ योजन के वर्गका जगत्प्रतरमें भाग देनेसे जितना प्रमाण आता है उतने व्यन्तर देव हैं । व्यन्तर देवोंसे सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारे ये पाँच प्रकारके ज्योतिषी देव संख्यातगुने हैं । सो दो सौ छप्पन घनांगुल के वर्गका जनत्प्रतर में भाग देनेसे जितना प्रमाण आता है उतने ज्योतिषी देव हैं। इस तरह चार निकायके देवोंमें कल्पवासी देवोंसे भवनवासी और व्यन्तर देवोंकी संख्या असंख्यात गुणी हैं और व्यन्तरोंसे संख्यात गुणी ज्योतिष्क देवोंकी संख्या है । इस प्रकार अल्प बहुत्व समाप्त हुआ॥१६॥ १ बम ते। २ब अल्पबहुत्वं । पत्तेयाणं इत्यादि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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