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________________ ९२ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १५७वनस्पतिकायिका जीवाः तेभ्यो असंख्येयलोकगुणिता भवन्ति = a = a । “तसरासिपुढविआदी चउक्कपत्तेय. हीणसंसारी। साहारणजीवाणं परिमाणं होदि जिणदिई॥” त्रसराशिना आवल्यसंख्येयभागभक्तप्रतराजुलभाजितजगत्प्रतरप्रमितेन ३२/a तथा पृथिव्यादिचतुष्टयेन प्रत्येकवनस्पतिराशिद्वयेन चेति राशित्रयेण विहीनः संसारराशिरेव साधारणजीवराशिप्रमाणं भवति १३ = ॥ "सगसग असंखभागो बादरकायाण होदि परिमाणं। सेसा सुहमपमाणं पडिभागो पुव्वणिहिटो ॥" पृथिव्यप्तेजोवायुकायिकानां साधारणवनस्पतिकायिकानां चासंख्येयलोकैकभागमानं खखबादरकायानां परिमाणं भवति । शेषतत्तद्वहुभागाः सूक्ष्मकायजीवानां प्रमाणम् ॥ "सुहमेसु संखभाग संखाभागा अपुण्णगा इदरा।" पृथिव्यप्तेजोवायुसाधारणवनस्पतिकायिकानां ये सूक्ष्माः प्रागुक्तास्तेष्वपर्याप्ताः तत्संख्यातैकभागप्रमाणा भवन्ति । पयोप्तकास्तत्संख्यातबहुभागप्रमिता भवन्ति । तथा बालावबोधार्थ पुनरप्येकेन्द्रियादीनां सामान्यसंख्यां गोम्मटसारोक्तामाह । "थावरसंखपिपीलियभमरमणुस्सादिगा समेदा जे । दुगवारमसंखेजाणताणता णिगोदभवा ॥" स्थावराः पृथिव्यप्तेजोवायु. प्रत्येकवनस्पतिकायिकनामानः पञ्चविधैकेन्द्रियाः, शंखादयो द्वीन्द्रियाः,पिपीलिकादयस्त्रीन्द्रियाः, भ्रमरादयश्चतुरिन्द्रियाः, मनुष्यादयः पञ्चेन्द्रियाश्च, खवावान्तर भेदसहिताः प्राकथितास्ते प्रत्येक द्विकवारासंख्यातप्रमिता भवन्ति । निगोदाः साधारणवनस्पतिकायिकाः अनन्तानन्ता भवन्ति ॥ अथ विशेषसंख्यां कथयस्तावदेकेन्द्रियसंख्यामाह । "तसहीणो संसारी एयक्खा ताण संखगा भागा। पुण्णाणं परिमाणं संखेजदिम अपुण्णाणं ॥" त्रसराविहीनसंसारिराशिरेव एकेन्द्रियराधिर्भवति १३-। अस्य च संख्यातबहुभागाः पर्याप्तकपरिमाणं भवति १३-।। तदेकभागः अपर्याप्तकराषिप्रमाणं भवति १३-14। अत्र संख्यातस्य संदृष्टिः पञ्चाङ्कः ५ ॥ अथैकेन्द्रियावान्तरमेदसंख्याविशेषमाह । "बायरसुहुमा तेसिं पुण्णापुण्णेत्ति छविहाणं पि । तकायमग्गणाए भणिजमाणकमो यो ॥” सामान्यैकेन्द्रियराशेः बादरसूक्ष्माविति द्वौ मेदौ । तयोः पुनः प्रत्येकं पर्याप्तापर्याप्ताविति चत्वारः । एवं षड्वेदानां तत्कायमार्गणायां भणि. ध्यमाणः क्रमो ज्ञेयः । तथा हि। एकेन्द्रियसामान्यराशेरसंख्यातलोकभक्तकभागो बादरैकेन्द्रियराशिप्रमाणं १३-१, राशिमेंसे एक घटाओ। इस तरह जब शलाका राशि समाप्त हो जाये तो अन्तमें जो महाराशि उत्पन्न हो उतनी ही तैजस्कायिक जीव राशि है । इस राशिमें असंख्यात लोकका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसे तैजस्कायिक जीवोंके प्रमाणमें मिला देनेसे पृथिवीकायिक जीवोंका प्रमाण होता है। इस पृथिवीकायिक राशिमें असंख्यात लोकका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसे पृथिवी कायिक जीवोंके प्रमाणमें मिला देनेसे अप्कायिक जीवोंका प्रमाण होता है । अप्कायिक राशिमें असंख्यात लोकका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसे अप्कायिक जीवोंके प्रमाणमें मिला देनेसे वायुकायिक जीवोंका प्रमाण आता है। इस तरह तैजस्कायिक जीवोंसे पृथ्वीकायिक जीव अधिक हैं । उनसे अप्कायिक जीव अधिक हैं । और उनसे कायुकायिक जीव अधिक हैं ॥ १ ॥ अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव यथायोग्य असंख्यात लोक प्रमाण हैं। इनको असंख्यात लोकसे गुणा करने पर जो प्रमाण आवे उतने प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव हैं ॥ २ ॥ आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित प्रतरांगुलका भाग जगत्प्रतरमें देनेसे जो लब्ध आवे उतन, त्रस राशिका प्रमाण है। इस त्रस राशिके प्रमाणको तथा ऊपर कहे गये पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवोंके प्रमाणको संसारी जीवोंके परिमाण मेंसे घटाने पर जो शेष रहे उतना साधारण वनस्पतिकायिक अर्थात् निगोदिया जीवोंका परिमाण होता है ॥ ३ ॥ पृथ्वी, अप, तेज, वायु और साधारण वनस्पतिकायिक जीवोंका जो ऊपर प्रमाण कहा है उस परिमाणमें असंख्यातका भाग दो । सो एक भाग प्रमाण तो बादर कायिकोंका प्रमाण है और शेष बहुभाग प्रमाण सूक्ष्म कायिक जीवोंका प्रमाण है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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