SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०. लोकानुप्रेक्षा “विंदावलिलोगाणमसंखं संखं च तेउवाऊणं । पजत्ताण पमाणं तेहिं विहीणा अपजता ॥" वृन्दावलेरसंख्यातभक्तकभागमात्राः बादरतेजस्कायिकपर्याप्तजीवा भवन्ति । तथा लोकस्य संख्यातभक्तकभागप्रमिताः बादरवायुकायिकपर्याप्तजीवा भवन्ति ॥ १४७ ॥ पुढवी-तोय-सरीरा पत्तेया वि य पइडिया इयरा । होति' असंखा सेढी पुण्णापुण्णा य तह य तसा ॥ १४८ ॥ [छाया-पृथ्वीतोयशरीराः प्रत्येकाः अपि च प्रतिष्ठिताः इतरे। भवन्ति असंख्यातश्रेणयः पूर्णापूर्णाः च तथा च त्रसाः॥] पृथिवीकायिका जीवाः १, तोयकायिका जीवाः २, प्रत्येकाः प्रत्येकवनस्पतिकायिका जीवाः ३, अपि च प्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पतिकायिका जीवाः ४, इतरे अप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पतिकायिकाः ५, एते सर्वेऽपि पूर्णापूर्णाश्च पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च १० । एते दश प्रकाराः प्रत्येकं असंख्यातश्रेणिमात्राः- तह य तसा तथा च त्रसाः पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च । एतेऽपि दशप्रकारा भवन्ति द्वित्रिचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियसंश्यसंज्ञिभेदात् । एतेऽपि असंख्यातश्रेणिमात्राः भवन्ति =/४/२/a । पजत्तकाय =/४/५ । अपजत्तकाय =/४/a-५ ॥ १४८॥ बादैर-लद्धि-अपुण्णा असंख-लोया हवंति पत्तेया। तह य अपुण्णा सुहुमा पुण्णा वि य संख-गुण-गणिया ॥ १४९ ॥ राशिके संख्यातवें भाग प्रमाण बादर पर्याप्त वायुकायिक जीव हैं। और बादर तेजस्कायिक तथा बादर वायुकायिक जीवोंके प्रमाणमेंसे बादर पर्याप्त तेजस्कायिकोंका तथा बादर पर्याप्त वायुकायिक जीवोंका प्रमाण कम कर देनेसे जो शेष रहे उतना बादर अपर्याप्त तेजस्कायिक तथा बादर अपर्याप्त वायुकायिक जीवोंका प्रमाण होता है । इस प्रकार घनावलीके असंख्यात भागोंमेंसे एक भाग प्रमाण बादर पर्याप्त तेजस्कायिक जीव होते हैं । और कुछ कम लोक प्रमाण (गोम्मटसारके मतसे लोकके संख्यात भागोंमेंसे एक भाग प्रमाण) बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव होते हैं ॥१४७॥ अब पृथिवी कायिक आदि जीवोंकी संख्या कहते हैं । अर्थ-पृथिवीकायिक, अप्कायिक, प्रत्येक वनस्पतिकायिक, प्रतिष्ठित और अप्रतिष्टित तथा त्रस, ये सब पर्याप्त और अपर्याप्त जीव जुदे जुदे असंख्यात जगत्श्रेणिप्रमाण होते हैं । भावार्थ-पृथिवीकायिक जीव, जलकायिक-जीव, प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव, प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव, अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव ये सब पर्याप्त और अपर्याप्तके भेदसे दस हुए । इन दसों प्रकारके जीवोंमेंसे प्रत्येकका प्रमाण असंख्यात जगत्श्रेणि है । तथा त्रस भी दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञिपञ्चेन्द्रिय और संज्ञिपञ्चेन्द्रियके भेदसे पांच प्रकारके होते हैं । तथा ये पांचों पर्याप्त और अपर्याप्तके भेदसे दो प्रकारके होते हैं । ये दसों प्रकारके त्रस जीव भी असंख्यात जगतश्रेणि प्रमाण होते हैं ॥ १४८॥ अर्थ-प्रत्येक वनस्पतिकायिक बादर लब्ध्यपर्यातक जीव असंख्यात लोक प्रमाण हैं । सूक्ष्म अपर्याप्तक जीव भी असंख्यात लोक प्रमाण हैं और सूक्ष्मपर्याप्तक जीव संख्यातगुने हैं । भावार्थ-प्रत्येक वनस्पति कायिक बादर लब्ध्यपर्याप्तक जीव असंख्यात लोक प्रमाण हैं । सूक्ष्मलब्ध्यपर्याप्तक जीव भी यद्यपि असंख्यात लोक प्रमाण हैं। किन्तु उनसे संख्यातगुने हैं । तथा सूक्ष्म पर्याप्त जीव उनसेभी संख्यातगुने हैं ॥ [यहां जो संख्या बतलाई १ग पुढवीयतोय। २ब हुति। ३ ब वायर। ४ म सग लद्धियपुण्णा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy