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________________ -१२२] १०. लोकानुप्रेक्षा सम्वत्य, सनाज्या बाये सर्वत्र लोके उपपादमारणान्तिकपरिणतत्रसान् विहाय सा न भवन्तीत्यर्थः। ण बादरा होति सव्वत्थ इति पाठे सर्वत्र लोके बादराः स्थूलाः पृथ्वीकायिकादयत्रसाश्च न सन्ति । 'आधारे थूलाओ' इति च वचनात् । ननु त्रसनाच्या सर्वत्र त्रसास्तिष्ठन्ति इति चेत्प्राह । सनाख्यां प्रसा इति सामान्यषचनम् । विशेषवाक्यं त्रिलोकप्रज्ञप्तौ प्रोकं च । 'लोयबहुमज्झदेसे तरुम्मि सारे व रजुपदरजुदा । तेरसरजुस्सेहा किंचूणा होदि तसणाली ॥' णत्यि ति जिणेहिं णिहिट्ठ ॥ १९२ ॥" गो० जीवकाण्ड ] त्रसनालीसे बाहरका कोई एकेन्द्रिय जीव त्रसनामकर्मका बन्ध करके, मृत्युके पश्चात् त्रसनालीमें जन्म लेनेके लिये गमन करता है, तब उसके त्रसनामकर्मका उदय होनेके कारण उपपादकी अपेक्षासे त्रसजीव सनालीके बाहर पाया जाता है । तथा, जब कोई त्रसजीव त्रसनालीसे बाहर एकेन्द्रियपर्यायमें जन्म लेनेसे पहले मारणान्तिक समुद्धात करता है, तब त्रसपर्यायमें होते हुएभी उसकी आत्माके प्रदेश प्रसनालीके बाहर पाये जाते हैं । 'ण बाहिरा होंति सव्वत्थ' के स्थानमें 'ण बादरा होति सव्वत्थ ऐसा भी पाठ है । इसका अर्थ होता है कि बादर जीव अर्थात् स्थूल पृथ्वीकायिक वगैरह एकेन्द्रिय जीव तथा त्रसजीव सर्वलोकमें नहीं रहते हैं। क्योंकि जीवकाण्डमें लिखा है-'स्थूलजीव आधारसे ही रहते हैं। ['आधारे थूलाओ ॥१९३॥] शङ्काक्या सनालीमें सर्वत्र त्रसजीव रहते हैं ? उत्तर-सनालीमें त्रसजीव रहते हैं, यह सामान्यकथन है। त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें इसका विशेष कथन किया है । [ “लोयबहुमझदेसे तरुम्मि सारं व रज्जुपदरजुदा । तेरस रज्जुस्सेहा किंचूणा होदि तसणाली ॥ ६॥" द्वि. अधि.] उसमें कहा है-“वृक्षमें उसके सारकी तरह, लोकके ठीक मध्यमें एक राजू लम्बी, एक राजू चौड़ी और कुछ कम तेरह राजू ऊँची त्रसनाली है।" शङ्का-सनालीको कुछ कम तेरह राजू ऊँची कैसे कहा है ? उत्तर-सातवी महातमःप्रभा नामकी पृथिवी आठ हजार योजनकी मोटी है [देखो, त्रिलोकसार गा. १७४ की टीका] । उसके ठीक मध्यमें नारकियोंके श्रेणीबद्ध बिले बने हुए हैं। उन बिलोंकी मोटाई १ योजन है । इस मोटाईको समच्छेद करके पृथिवीकी मोटाईमें घटानेसे २४:०- २३.९९६ योजन शेष बचता है । इसका आधा ११.९९८ योजन होता है । भाग देनेपर ३९९९३ योजन आते हैं। इतने योजनोंके ३१९९४६६६ धनुष होते हैं । यह तो नीचेकी गणना हुई । अब ऊपरकी लीजिये । सर्वार्थसिद्धि विमानसे ऊपर १२ योजनपर ईषत्प्राग्भार नामकी आठवीं पृथ्वी है, जो आठ योजन मोटी है । ["तिहुवणमुड्डारूढा ईसिपभारा धरट्ठमी रुंदा । दिग्धा इगिसगरज्जू अडजोयणपमिदवाहल्ला ॥ ५५६ ॥" त्रिलोकसार, अर्थ-'तीनों लोकोंके मस्तकपर आरूढ ईषत्याग्भार नामकी आठवीं पृथ्वी है । उसकी चौड़ाई एक राजू लम्बाई सात राजू और मोटाई आठ योजन है ।' ] १२ योजनके ९६००० धनुष होते हैं । और आठवीं पृथ्वीके ८ योजनके ६४००० धनुष होते हैं। ["कोसाणं दुगमेक्कं देसूणेक्कं च लोयसिहरम्मि। ऊणधणूणपमाणं पणुवीसझहियचारिसयं ॥ १२६ ॥" त्रिलोकसार. अर्थ-'लोकके शिखरपर तीनों वातवलयोंका बाहुल्य दो कोस, एक कोस और कुछ कम एक कोस है । कुछ कमका प्रमाण ४२५ धनुष है ।' अतः तीनों वातवलयोंका बाहुल्य ४०००+२०००+१५७५-७५७५ धनुष होता है । क्योंकि एक कोसके २००० धनुष होते हैं।] उसके उपर तीनों वातवलयोंकी मोटाई ७५७५ धनुष है । इन सब धनुषोंका जोड़ ३२१६२२४१३ धनुष होता है। [ ऊणपमाण दंडा कोडितियं एक्कवीसलक्खाणं । वासर्डिं च सहस्सा दुसमा इगिदाल दुतिभाया ॥७॥" त्रिलोकप्र०, २ य अधि० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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