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________________ ५९ -१२०] १०. लोकानुप्रेक्षा [छाया-मेरोः अधोभागे सप्तापि रजवः भवति अधोलोकः । ऊ ऊर्ध्वलोकः मेरुसमः मध्यमः लोकः ॥1 मेरोरधस्तनभागे अधोलोकः । सप्तरज्जुमात्रो भवेत् । तथा हि, अधोभागे मेर्वाधारभूता रत्नप्रभाख्या प्रथमा पृथिवी । तस्या अधोऽधः प्रत्ये कमेकैकरजप्रमाणमाकाशं गत्वा यथाक्रमेण शर्करावालुकापङ्कधूमतमोमहातमःसंज्ञाः षड् भूमयो भवन्ति । तस्मादधोभागे रजप्रमाणक्षेत्रं भूमिरहितं निगोदादिपञ्चस्थावरमृतं च तिष्ठति । रत्नप्रभादिपृथिवीनां प्रत्यक घनोदधिधनवाततनुवातत्रयमाधारभूतं भवतीति विज्ञेयम् । उम्हि उङ्कलोओ ऊर्चे ऊर्वलोकः, मेरोरुपरिभागे ऋजुपटलमारभ्य त्रैलोक्यशिखरपर्यन्तम् ऊर्वलोकः सप्तरजमात्रो भवति । मध्यमो लोकः मेरुसमः । मेरोरुदयमात्रः लक्षयोजनप्रमाण इत्यर्थः ॥ १२०॥ लोकशब्दस्य निरुक्तिमाहकरनेपर २८४७-१९६ राजू अधोलोकका घनफल होता है । इसी प्रकार ऊर्ध्वलोकका भी धनफल निकाल लेना चाहिये । अर्थात् मुख १ राजू, भूमि ५ राजू, दोनोंका जोड़ ६ राजू, उसका आधा ३ राजू, इस ३ राजूको पद ७ राजूसे गुणा करनेपर ७४३=२१ राजू आधे ऊर्ध्वलोकका क्षेत्रफल होता है । इसे उँचाई साढ़ेतीन राजमे गुणा करनेपर २१४ = १३. राजू आधे ऊर्ध्वलोकका घन फल होता है । इसको दूना कर देने से १४७ राजू पूरे ऊयलोकका घन फल होता है । अधोलोक और ऊर्ध्वलोकके घन फलोंको जोड़नेसे १९६+१४७=३४३ राजू पूरे लोकका घनफल होता है । गाथामें आये क्षेत्रफल शब्दसे घन क्षेत्रफल ही समझना चाहिये ॥११९॥ तीनों लोकोंकी उँचाईका विभाग करते हैं । अर्थ-मेरुपर्वतके नीचे सात राजूप्रमाण अधोलोक है । ऊपर ऊर्ध्वलोक है । मेरुप्रमाण मध्य लोक है । भावार्थ-'मेरु' शब्दका अर्थ 'माप करनेवाला' होता है । जो तीनों लोकोंका माप करता है, उसे मेरु कहते हैं । ["लोकत्रयं मिनातीति मेरुरिति ।" राजवाप पृ. १२७ ] जम्बूद्वीपके बीच में एकलाख योजन ऊँचा मेरुपर्वत स्थित है । वह एक हजार योजन पृथ्वीके अन्दर है और ९९ हजार योजन बाहर । [ 'जम्बूद्वीपे महामन्दरो योजनसहस्रावगाहो भवति नवनवतियोजनसहस्रोच्छ्रायः । तस्याधस्तादधोलोकः । बाहुल्येन तत्प्रमाणः तिर्थप्रसृतस्तिर्यग्लोकः। तस्योपरिष्टादूर्ध्वलोकः । मेरुचूलिका चत्वारिंशयोजनोच्छ्राया तस्या उपरि केशान्तरमात्रे व्यवस्थितमृजुविमानमिन्द्रकं सौधर्मस्य ।" सर्वार्थ० पृ. १५७ अनु० ] उसके ऊपर ४० योजनकी चूलिका है । रत्नप्रभा नामकी पहली पृथिवीके ऊपर यह स्थित है। इस पृथिवीके नीचे शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा और महातमप्रभा नामकी छह पृथिवीयाँ और हैं । सातवीं पृथिवीके नीचे १ राजूमें निगोदस्थान है। ये सभी पृथिवियाँ घनोदधि, घनवात और तनुवात नामके तीन वातवलयोंसे वेष्टित हैं । मेरुसे नीचेका सात राजू प्रमाण यह सब क्षेत्र, अधोलोक कहलाता है । तथा ऊपर सौधर्मवर्गके ऋजुविमानके तलसे लेकर लोकके शिखरपर्यन्त सात राजू क्षेत्रको ऊर्ध्व लोक कहते हैं । [ मेरुपर्वतकी चूलिका और ऋजुविमानमें एक बाल मात्रका अन्तर है ] । सोलह वर्ग, नौ अवेयक, पाँच अनुत्तर तथा सिद्धशिला, ये सब ऊलोकमें सम्मिलित हैं । तथा, अधोलोक और ऊर्ध्वलोकके बीचमें सुमेरुपर्वतके तलसे लेकर उसकी चूलिकापर्यन्त एक लाख चालीस योजन प्रमाण ऊँचा क्षेत्र मध्यलोक कहलाता है । शङ्का-लोककी ऊँचाई चौदह राजू बतलाई है । उसमें सात राजू प्रमाण अधोलोक बतलाया है और सात राजू प्रमाण ऊर्बलोक बतलाया है। ऐसी दशामें मध्यलोककी ऊँचाई एकलाख चालीस योजन अधोलोकमें सम्मिलित है या ऊर्ध्वलोकमें या दोनोंसे पृथक् ही है ? उत्तर-मेरुपर्वतके तलसे नीचे सातराजू प्रमाण अधोलोक है और तलसे ऊपर सातराजू प्रमाण ऊर्ध्वलोक है । अतः मध्यलोककी ऊँचाई ऊर्ध्वलोकमें सम्मिलित है । सात राजूकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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