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________________ ५२ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १०९ततः असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानगुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यमसंख्यातगुणं भवति । १। ततः देशसंयतस्य गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यमसंख्यातगुणम् । २ । ततः सकलसंयतस्य गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यमसंख्यातगुणम् । ३ । ततोऽनन्तानुबन्धिकषायविसं. योजकस्य गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यमसंख्यातगुणम् । ४। ततो दर्शनमोहक्षपकस्य गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यमसंख्यातगुणम् । ५। ततः कषायोपशमत्रयस्य गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यमसंख्यातगुणम् । ६। ततः उपशान्तकषायस्य गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यम गुणम् । ततः क्षपकत्रयस्य गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यमसंख्यातगुणम् । ८ । ततः क्षीणकषायस्य गुणश्रेणिनिर्जराद्रध्यमसंख्यातगुणम् । ९। ततः स्वस्थानकेवलिजिनस्य गुणश्रेणिनिराद्रव्यमसंख्यातगुणम् । १०। ततः समुद्धातकेवलिजिनस्य गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यमसंख्यातगुणम् । ११ । इत्येकादशखस्थाने गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यस्य प्रतिस्थानमसंख्यातगुणितस्वमुतम् ॥ १०६-८ ॥ अथाधिकनिर्जराकारणं गाथाचतुष्केनाह जो विसहदि दुबयणं साहम्मिय-हीलणं च उवसग्गं । जिणिऊण कसाय-रि तस्स हवे णिजरा विउला ॥ १०९॥ असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है। उससे बारहवें क्षीणमोह गुणस्थानवालेके असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है। उससे सयोगकेवली भगवानके असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है । उससे अयोगकेवली भगवानके असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है। इस प्रकार इन ग्यारह स्थानोंमें ऊपर ऊपर असंख्यात गुणी असंख्यातगुणी कर्मोंकी निर्जरा होती है ॥ भावार्थ-प्रथम उपशम सम्यक्त्वके प्रकट होनेसे पहले सातिशय मिथ्यादृष्टिजीवके अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामके तीन परिणाम होते हैं। जब वह जीव उन परिणामोंके अन्तिम समयमें वर्तमान होता है, तो उसके परिणाम विशुद्ध होते हैं, और वह अन्य मिथ्यादृष्टियोंसे विशिष्ट कहाता है । उस विशिष्ट मिथ्यादृष्टिके आयुकर्मके सिवाय शेष सातकर्मोंकी जो गुणश्रेणि निर्जरा होती है, उससे असंयतसम्यग्दृष्टिके असंख्यातगुणी निर्जरा होती है । इसी प्रकार आगेभी समझना चाहिये । सारांश यह है कि जिन जिन स्थानों में विशेष विशेष परिणाम विशुद्धि है, उन उनमें निर्जरा भी अधिक अधिक होती है, और ऐसे स्थान ग्यारह हैं । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि ग्रन्थकारने ग्यारहवाँ स्थान अयोगकेवलीको बतलाया है। किन्तु सं. टीकाकारने सयोगकेवलीके ही दो भेद करके स्वस्थानसयोगकेवलीको दसवाँ और समुद्धातगत सयोगकेवलीको ग्यारहवाँ स्थान बतलाया है। और, 'अजोइया' को एक प्रकार से छोड़ ही दिया है । इन स्थानोंको गुणश्रेणि भी कहते हैं, क्योंकि इनमें गुणश्रेणिनिर्जरा होती है। [ तत्त्वार्थसूत्र ९-४५ में तथा गो. जीवकाण्ड गा० ६७ में केवल 'जिन' पद आया है । तत्त्वार्थसूत्रके टीकाकारोंने तो उसका अर्थ केवल जिन ही किया है और इस तरह दसही स्थान माने है ( देखो, सर्वार्थ० और राजवार्ति०) किन्तु जीवकाण्डके सं. टीकाकारोने 'जिन' का अर्थ स्वस्थानकेवली और समुद्धातकेवली ही किया है । श्वे० साहित्य पंचम कर्मग्रन्थ, पञ्चसंग्रह वगैरहमें सयोगकेवली और अयोगकेवलीका ग्रहण किया है। अनु०] ॥ १०६-८॥ चार गाथाओंसे अधिक निर्जरा होनेके कारण बतलाते हैं । अर्थ-जो मुनि कषायरूपी शत्रुओंको जीतकर, दूसरोंके दुर्वचन, अन्य साधर्मी मुनियोंके द्वारा किये गये अनादर और देव वगैरहके द्वारा किये गये उपसर्गको सहता है, उसके बहुत निर्जरा होती है । भावार्थ-जीवके साथ दूसरे लोग जो कुछ दुर्व्यवहार करते हैं, वह उसके ही पूर्वकृत कर्मोंका फल है । ऐसा समझकर जो मुनि दूसरोंपर १ ब साइम्मिही । २ब णिजर विउलं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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