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________________ -६८] ३. संसारानुप्रेक्षा ३३ सो को वि णत्थि देसो लोयायासस्स णिरवसेसस्स । जत्थ ण सबो' जीवो जादो मरिदो य बहुवारं ॥ ६८॥ [छाया-स कोऽपि नास्ति देशः लोकाकाशस्य निरवशेषस्य । यत्र न सर्वः जीवः जातः मृतश्च बहुवारम् ॥] लोकाकाशस्य श्रेणि ७ घनमात्रस्य (= ३४३) निरवशेषस्य समग्रस्य स कोऽपि देशः प्रदेशो नास्ति न विद्यते। स कः । यत्र सर्वो जीवः समस्तसंसारी जीव , बहुवारम् अनेकवारं यथा भवति तथा, न जातः न उत्पन्नः, न मृतश्च न मरणं प्राप्तः । क्षेत्रपरिवर्तनं द्वेधा खपरमेदात्। तत्र स्वक्षेत्रपरिवर्तनं कश्चित्सूक्ष्मनिगोदजीवः सूक्ष्मजघन्यनिगोदावगाहेन उत्पन्नः स्वस्थितिं जीवित्वा मृतः पश्चात् प्रदेशोत्तरावगाहनेन प्रदेशोत्तरक्रमेण महामत्स्यावगाहपर्यन्तं अवगाहनानि । परक्षेत्रपरिवर्तनं तु सूक्ष्मनिगोदोऽपर्याप्तकः सर्व जघन्यावगाहनशरीरो लोकमध्या प्रदेशान् खशरीरमध्याष्टप्रदेशान् कृत्वोत्पन्नः क्षुद्रभवकालं जीवित्वा मृतः । स एव पुनस्तेनैवावगाहनेन द्विवारं त्रिवारम् एवं यावत् घनाङ्गुलासंख्येयभागवारं तत्रवोत्पन्नः पुनः एकैकप्रदेशाधिकभावेन सर्व लोकं त्रिचत्वारिंशदधिकत्रिशत ३४३ रजुप्रमाणं खजन्मक्षेत्रमा नयति इति परक्षेत्रपरिवर्तनम् । उक्तं च । 'सव्वम्हि लोयखेत्ते कमसो तं णस्थि जंण उच्छिण्णो । उग्गाहणाउ बहुसो हिंडं तो खेत्तसंसारे ॥ ६८ ॥ अथ कालपरिवर्तनं प्रतनोति जो पहले ग्रहण न किये हों, उन्हें अगृहीत कहते हैं । दोनोंके मिलावको मिश्र कहते हैं । इनके ग्रहणका क्रम पूर्वोक्त प्रकार है। [इस क्रमको विस्तारसे जाननेके लिये इसी शास्त्रमालासे प्रकाशित गो० जीवकाण्ड (पृ० २०४ ) देखना चाहिये। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें द्रव्यपरिवर्तनके दो भेद किये गये हैं-बादर द्रव्यपरिवर्तन और सूक्ष्म द्रव्यपरिवर्तन । दोनोंके स्वरूपमें भी अन्तर है, जो इस प्रकार है-'जितने समयमें एक जीव समस्त परमाणुओंको औदारिक, वैक्रिय, तैजस, भाषा, आनप्राण, मन और कार्माणशरीर रूप परिणमाकर, उन्हें भोगकर छोड़ देता है, उसे बादर द्रव्यपरावर्त कहते हैं । और जितने समयमें समस्त परमाणुओंको औदारिक आदि सात वर्गणाओंमेंसे किसी एक वर्गणारूप परिणमाकर उन्हें भोगकर छोड़ देता है, उसे सूक्ष्म द्रव्यपरावर्त कहते हैं ।' देखो हिन्दी पंचमकर्मग्रन्थ गाथा ८७ का, अनु०] ॥ ६७ ॥ अब क्षेत्रपरिवर्तनको कहते हैं । अर्थ-समस्तलोकाकाशका ऐसा कोई भी प्रदेश नहीं है, जहाँ सभी जीव अनेक बार जिये और मरे न हों ॥ भावार्थ-यह लोक जगतश्रेणीका घनरूप है । सात राजूकी जगतश्रेणी होती है। उसका घन ३४३ राजू होता है। इन तीनसौ तेतालीस राजुओंमें सभी जीव अनेक बार जन्म ले चुके और मर चुके हैं । यही क्षेत्रपरिवर्तन है । वह दो प्रकारका होता है-खक्षेत्रपरिवर्तन और परक्षेत्रपरिवर्तन । कोई सूक्ष्मनिगोदियाजीव सूक्ष्मनिगोदियाजीवकी जघन्य अवगाहनाको लेकर उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मर गया। पश्चात् अपने शरीरकी अवगाहनामें एक एक प्रदेश बढ़ाते बढ़ाते महामत्स्यकी अवगाहनापर्यन्त अनेक अवगाहना धारण करता है । इसे खक्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं । अर्थात् छोटी अवगाहनासे लेकर बड़ी अवगाहना पर्यन्त सब अवगाहनाओंको धारण करनेमें जितना काल लगता है उसको खक्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं। कोई जघन्य अवगाहनाका धारक सूक्ष्मनिगोदियालब्ध्यपर्याप्तकजीव लोकके आठ मध्यप्रदेशोंको अपने शरीरके आठ मध्यप्रदेश बनाकर उत्पन्न हुआ । पीछे वही जीव उस ही रूपसे उस ही स्थानमें दूसरी तीसरी बार भी उत्पन्न हुआ । १बसवे। २बजादो य मदो य इति पाठः परिवर्तितः। ३ गाथान्ते ब खेत्त, म खेत्ते। ४ सर्वत्र 'महामत्स्या १८ वगाह" इति पाठः। कात्तिके०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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