SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८ . खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ६२एवं सुट्ट असारे संसारे दुक्ख-सायरे घोरे । किं कत्थं वि अस्थि सुहं वियारमाणं सुणिच्छयदो ॥ १२॥ [छाया-एवं सुष्टु असारे संसारे दुःखसागरे घोरे । किं कुत्रापि अस्ति सुखं विचार्यमाणं सुनिश्चयतः ॥] एवं चतुर्गतिषु दुःखसुखभावस्योपसंहार दर्शयति । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण सुनिश्चयतः परमार्थतः विचार्यमाणं चय॑मान कुत्रापि चतुर्गतिसंसारे सुखं किमस्ति । अपि तु नास्ति । कथंभूते संसारे । सुषु असारे अतिशयेन सारवर्जिते । पुनः कीदृक्षे । दुःखसागरे असुखसमुद्रे, घोरे रौद्रे ॥ ६२ ॥ अथ जीवानाम् एकत्र स्थिती नियतत्वं नास्तीत्यावेदयति दुक्किय-कम्म-वसादो राया वि य असुइ-कीडओ होदि । तत्थेव य कुणइ रई पेक्खंह मोहस्स माहप्पं ॥ ६३ ॥ [छाया-दुष्कृतकर्मवशात् राजापि च अशुचिकीटकः भवति । तत्रैव च करोति रति प्रेक्षध्वं मोहस्य माहात्म्यम्॥] च पुनः, राजापि भूपतिरपि न केवलमन्यः भवति जायते । कः । अशुचिकीटकः विष्ठाकीटकः । कुतः । दुःकर्मवशात् पापकर्मोदयवशतः, च पुनः, तत्र विष्ठामध्ये रतिं रागं कुरुते सुखं कृत्वा मन्यते। पश्यत यूयं प्रेक्षध्वं मोहस्य मोहनीय कर्मणः माहात्म्यं प्राबल्यं यथा ॥ ६३ ॥ येन अथैकस्मिन् भवे अनेके संबन्धा जायन्ते इति प्ररूपयति हमें सुखदायक मालूम होते हैं, किन्तु मनके उधरसे उचटते ही वे दुःखदायक लगने लगते हैं । या आज हमें जो वस्तु प्रिय है, उसका वियोग हो जानेपर वही दुःखका कारण बन जाती है । अतः विषयसुख दुःखका भी कारण है ॥ ६१ ॥ अर्थ-इस प्रकार परमार्थसे विचार करनेपर, सर्वथा असार, दुःखोंके सागर इस भयानक संसारमें क्या किसीको भी सुख है ? ॥ भावार्थ-चारगतिरूप संसारमें सुख-दुःखका विचार करके आचार्य पूछते हैं, कि निश्चयनयसे विचार कर देखो कि इस संसारमें क्या किसीको भी सच्चा सुख प्राप्त है ! जिन्हें हम सुखी समझते हैं, वस्तुतः वे भी दुःखी ही हैं । दुःखोंके समुद्रमें सुख कहाँ ! ॥ ६२ ॥ अब यह बतलाते हैं कि जीवोंका एक पर्यायमें रहना भी नियत नहीं है । अर्थ-पापकर्मके उदयसे राजा भी मरकर विष्ठाका कीड़ा होता है, और उसी विष्ठामें रति करने लगता है। मोहका माहात्म्य तो देखो ॥ भावार्थ-विदेह देशमें मिथिला नामकी नगरी है । उसमें सुभोग नामका राजा राज्य करता था । उसकी पत्नीका नाम मनोरमा था । उन दोनोंके देवरति नामका युवा पुत्र था । एक बार देवकुरु नामके तपस्वी आचार्य संघके साथ मिथिला नगरीके उद्यानमें आकर ठहरे। उनका आगमन सुनकर राजा सुभोग मुनियोंकी वन्दना करनेके लिये गया। और आचार्यको नमस्कार करके उनसे पूछने लगा-मुनिराज ! मैं यहाँसे मरकर कहाँ जन्म लैंगा ! राजाका प्रश्न सुनकर मुनिराज बोले-'हे राजेन्द्र ! आजसे सातवें दिन बिजलीके गिरनेसे तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी और तुम मरकर अपने अशौचालयमें टट्टीके कीड़े होओगे । हमारे इस कथनकी सत्यताका प्रमाण यह है, कि आज जब तुम यहाँसे जाते हुए नगरमें प्रवेश करोगे तो तुम मार्गमें एक भौंरेकी तरह काले कुत्तेको देखोगे।' मुनिके वचन सुनकर राजाने अपने पुत्रको बुलाकर उससे कहा, 'पुत्र ! आजसे सातवें दिन मरकर मैं अपने अशौचालयमें टट्टीका कीड़ा हूँगा। तुम मुझे मार देना।' पुत्रसे ऐसा कहकर राजाने अपना राजपाट छोड़ दिया और बिजली गिरनेके भयसे जलके अन्दर बने हुए महलमें छिपकर बैठ गया। सातवें दिन बिजलीके गिरनेसे राजाकी मृत्यु हो गई १ब पेक्खहु, ल म ग पिक्खह । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy