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________________ -४९] ३. संसारानुप्रेक्षा पुण्ण-जुदस्स वि दीसदि' इट्ठ-विओयं अणि संजोयं । भरहो वि साहिमाणो परिजिओ लहुय भाएण ॥ ४९ ॥ [ छाया - पुण्ययुतस्यापि दृश्यते इष्टवियोगः अनिष्टसंयोगः । भरतोऽपि साभिमानः पराजितः लघुकभ्रात्रा ॥ ] दृश्यते ईक्ष्यते [ ईक्षते ? ] । कम् । इष्टवियोगम् इष्टानां धनधान्यपुत्रकलत्र पौत्रमित्रादीनां वियोगः विप्रयोगः तम्, अनिष्टसंयोगं च अनिष्टानाम् अहिकण्टकशशुप्रमुखानां संयोगः मेलापकः तम् । कस्य । पुष्ययुतस्य शुभप्रकृतिविपाकसहित स्य, अपिशब्दात् न केवलम् अपुण्ययुतस्य, इष्टोऽपि अनिष्टतामेति । तत्र कथां कथयति । भरतोऽपि श्रीमदादिदेवपुत्रोऽपि प्रथमचक्रवर्त्यपि साभिमानः सन् सगर्वः सन् पराजितः पराजयं नीतः । केन । लघुकभ्रात्रा अनुजेन श्रीबाहुबलिना ॥४९॥ Jain Education International २३ सर्वघाती स्पर्द्धकोंके उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशमसे जो सम्यग्दर्शन होता है, उसे क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं । जिसके तीनोंमेंसे कोई भी एक सम्यक्त्व होता है, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं । गोम्मटसार जीवकाण्डमें सम्यग्दृष्टिका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है- "जो इंदियेसु विरदो णो जीवे थावरे तसे वापि । जो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥ २९ ॥" अर्थात्, जो न तो इन्द्रियोंके विषयोंसे विरत है, न त्रस अथवा स्थावर जीवकी हिंसा से ही विरत है । किन्तु जो जिनभगवान के वचनों पर श्रद्धान करता है, वह अविरत सम्यग्दृष्टि है । जो सम्यग्दृष्टि व्रतसे युक्त होता है, उसे व्रती कहते हैं । व्रती दो प्रकार के होते हैं - एक अणुव्रती श्रावक और दूसरे महाव्रती मुनि । श्रावक १२ व्रत होते हैं - [ इन व्रतोंका स्वरूप जाननेके लिये देखो सर्वार्थसिद्धिका ७ वाँ अध्याय अथवा रत्नकरंड श्रावकाचारका ३, ४, ५ वाँ परिच्छेद । अनु० ] पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । तथा महाव्रती मुनिके पाँच महाव्रत होते हैं-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । इन्हीं पाँच महाव्रतोंके एकदेश पालन करनेको अणुव्रत कहते हैं। अपने किये हुए पापोंके स्वयं प्रकट करनेको निन्दा कहते हैं, और गुरुकी साक्षीपूर्वक अपने दोषोंके प्रकट करनेको गर्हा कहते हैं । कषायोंके मन्द होनेसे उत्तम क्षमा आदि रूप जो परिणाम होते हैं, उन्हें उपशम भाव कहते हैं । इन सम्यक्त्व, व्रत, निन्दा, गर्हा, आदि भावोंसे पुण्यकर्मका बन्ध होता है । किन्तु उनकी ओर विरले ही मनुष्योंकी प्रवृत्ति होती है । अतः विरले ही मनुष्य पुण्यकर्मका बन्ध करते हैं ॥ ४८ ॥ अर्थ - पुण्यात्मा जीवके भी इष्टका वियोग और अनिष्टका संयोग देखा जाता है। अभिमानी भरत चक्रवर्तीको भी अपने लघुभ्राता बाहुबलिके द्वारा पराजित होना पड़ा । भावार्थ- पहली गाथाओंमें पापकर्मसे पुण्यकर्मको उत्तम बतलाकर पुण्यकर्मकी और लोगोंकी प्रवृत्ति न होनेकी शिकायत की थी । किन्तु इसमें कोई यह न समझे कि पुण्यात्मा जीवोंको सुख ही सुख मिलता है। जिन जीवोंके पुण्यकर्मका उदय है, वे भी संसारमें दुःखी देखे जाते हैं। उन्हें भी अपने धन, धान्य, स्त्री, पुत्र, पौत्र, मित्र वगैरह इष्ट वस्तुओंका वियोग सहना पंड़ता है, और सर्प, कण्टक, शत्रु वगैरह अनिष्ट वस्तुओं का संयोग होजानेपर उन्हें दूर करनेके लिये रात-दिन चिन्ता करनी पड़ती है । अतः यह नहीं समझना चाहिये कि जिनके पुण्यकर्मका उदय है, वे सब सुखी ही हैं । देखो, भगवान आदिनाथ के बड़े पुत्र सम्राट् भरतको अपने ही छोटे भाई 1 १ ल म सग दीसह । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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