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________________ अविरति इस प्रकार सैंतालीस आस्रव होते हैं। असंयम में आहारक द्विक को छोडकर शेष पचपन आस्रव होते हैं अर्थात् पांच मिथ्यात्व पच्चीस कषायें, चारमनोयोग चार वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिक मिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये तेरह योग बारह अविरति इस प्रकार असंयम में पचपन आस्रव होते हैं। चक्षु और अचक्षु दर्शन में सभी अर्थात् सत्तावन आस्रव होते हैं। अवहीए अडदालं णाणतिउत्ता हि केवलालोए । सग गयदोआहारय पणवण्णं हुंति किण्हतिए।। ६३ ।। अवधौ अष्टचत्वारिंशत् ज्ञानत्रिकोक्ता हि केवलालोके। सप्त गतद्विकाहारकाः पंचपंचाशत् भवन्ति कृष्णत्रिके।। अवहीए- अवधिदर्शने, णाणतिउत्ता हि- निश्चितं ज्ञानत्रिके य उक्तास्त एव, अडदालं- इति, अष्टचत्वारिंशत्प्रत्यया भवन्ति। ते के ? इति चेदुच्यते अनन्तानुबन्धिचतुष्कं मिथ्यात्वपंचकं वर्जयित्वा अपरे अष्टाचत्वारिंशदास्त्रवाः। केवलालोए सग- केवलदर्शने सप्त। के ते? सत्यानुभयमनो-वचनयोगौदारिक-कौदारिकमिश्रकार्मणकाययोगा. एवं सप्त प्रत्यया भवन्ति। इति दर्शनमार्गणायामास्त्रवाः। गयदोआहारय किण्हतिए- कृष्णनीलकापोतलेश्यात्रिके आहारकतन्मिश्रद्वयरहिता अन्येऽवशिष्टाः, पणवण्णं - पंचपंचाशत्प्रत्ययाः, हुंति- भवन्ति।। ६३॥ अन्वयार्थ- (हि) निश्चय से (अवहीए) अवधि दर्शन में (णाणतिउत्ता) पूर्वोक्त मति, श्रुत, और अवधि इन तीन ज्ञानों में कहे गये (अडदालं) अड़तालीस आस्रव होते हैं। (केवलालोए) केवलदर्शन में केवलज्ञान के समान सात आस्रव होते हैं। (किण्हतिए) कृष्ण, नील और कापोत इन तीन लेश्याओं में (गयदोआहारय) आहारक द्विक को छोड़कर शेष (पणवण्णं) पचपन आस्रव (हुंति) होते हैं। भावार्थ- अवधि दर्शन में अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ एवं पाँच प्रकार के मिथ्यात्व को छोड़कर शेष अड़तालीस प्रकार का आस्रव होता है। केवल दर्शन में सत्यमनोयोग अनुभय मनोयोग, सत्यवचनयोग, अनुभयवचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, और कार्मणकाययोग ये सात आस्रव होते हैं। कृष्ण, नील और कापोत लेश्या में आहारक काय योग और आहारक मिश्र काययोग को छोड़कर शेष पचपन आस्रव होते हैं। भावार्थ ६४ पीत, पद्म, शुक्ल इन तीन लेश्याओं में और भव्य जीवों के नाना जीवों की अपेक्षा सभी अर्थात् सत्तावन आस्रव होते हैं। वे इस प्रकार से हैं. १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002711
Book TitleSiddhantasara
Original Sutra AuthorJinchandra Acharya
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherDigambar Sahitya Prakashan
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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