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________________ 13. * जो जाणादि जिणिंदे पेच्छदि सिद्धे तहेव अणयारे। जीवेसु साणुकंपो उवओगो सो सुहो तस्स ।। अर्थ - जो अर्हन्तों, सिद्धों तथा अनगारों को जानता है और श्रद्धा करता है तथा जीवों के प्रति अनुकम्पायुक्त है , उसका वह उपयोग शुभ है । (प्र. सा. 2-65) 14. * जदि देवदसु 'यपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु । उववासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा। अर्थ - यति, देव और गुरु की पूजा में, दान, सुशीलों और उपवासादिकों में लीन आत्मा शुभोपयोगात्मक है । (प्र. सा. 1-69) 15. * जुत्तो सुहेण आदा तिरिओ वा माणुसो व देवो वा। भूदो तावदि कालं लहइ सुहं इंदियं विविहं॥ अर्थ - शुभ परिणाम से युक्त आत्मा तिर्यञ्च अथवा मनुष्य अथवा देव होता हुआ उतने समय तक अनेक प्रकार के इन्द्रिय सम्बन्धी सुख को पाता है। (प्र. सा. 1-70) 16. * सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । जं इंदियेहि लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तधा ॥ अर्थ- जो इन्द्रियों से प्राप्त होता है वह सुख पर सम्बन्ध युक्त, बाधा सहित, विच्छिन्न, बंध का कारण और विषम है इस प्रकार वह दुःख ही है। (प्र. सा. 1- 76) 17. * विसयकसायोगाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्ठगोट्टि जुदो। उग्गो उम्मग्गपरो उवओगो जस्स सो असुहो॥ ' अर्थ- जिसका उपयोग कषाय और विषयों लीन है कुति, 13*. (1) गुरु ( 54 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002708
Book TitleParamagamsara
Original Sutra AuthorShrutmuni
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherVarni Digambar Jain Gurukul Jabalpur
Publication Year2000
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, H000, H999, P000, & P999
File Size3 MB
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