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________________ से युक्त हैं, नित्य बहुत आरम्भ और परिग्रह से संचित कर्मों के कारण वे नरकगति को जाते हैं। सण्णा चउसंजुत्ता परधणहरणादिभावसहिदा हु। मायावंचणसीला तिरियगदि जांति ते जीवा ।।136|| अन्वय - सण्णा चउसंजुत्ता हु परधणहरणादिभावसहिदा मायावंचणसीला ते जीवा तिरियगदि जांति । ___ अर्थ - जो चारों संज्ञाओं अर्थात् आहार, भय , मैथुन और परिग्रह से संयुक्त है तथा दूसरों के धनादि के हरण के भाव से सहित हैं। मायाचारी, कपट स्वभाव से युक्त हैं। वे जीव तिर्यंचगति को प्राप्त होते हैं। णिच्चं दाणाणुरदा सील-जमविहीणमज्झिमगुणजुदा । अल्पारंभपरिग्गहसंचिदकम्मा हु जांति मणुयगदि ।।137|| अन्वय - णिच्चं दाणाणुरदा सील-जमविहीणमज्झिमगुणजुदा हु अल्पारंभपरिग्गहसंचिदकम्मा मणुयगदिं जांति | अर्थ -नित्य दान में अनुरक्त, शील - नियम आदि से रहित, मध्यम गुणों से युक्त निश्चय ही अल्प आरम्भ और परिग्रह से संचित कर्मों के कारण मनुष्य गति को जाते हैं। जे सद्दिट्टी जीवा जे सावयणिलयसंजुदा जीवा । जे सयलव्वदणिरदा तेजीवा जांति दिविजवरसोक्खं ।।138|| अन्वय - जे सद्दिट्ठी जीवा जे सावयणिलयसंजुदा जीवा जे सयलव्वदणिरदा ते जीवा दिविजवरसोक्खं जांति। अर्थ-जो सम्यग्दृष्टि जीव श्रावक के सम्पूर्ण व्रतों से संयुक्त हैं वे जीव तथा जो सम्पूर्ण व्रतों में निरत अर्थात् महाव्रती वे जीव स्वर्गों के उत्कृष्ट सुखों को प्राप्त करते हैं। जे चत्तोभयगंथा सुद्धप्परया हु णिज्जिदकसाया। उग्गतवखविदकम्मा ते जीवा जांति सिद्धिगदि।।139।। (39) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002708
Book TitleParamagamsara
Original Sutra AuthorShrutmuni
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherVarni Digambar Jain Gurukul Jabalpur
Publication Year2000
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, H000, H999, P000, & P999
File Size3 MB
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