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________________ अवलोकन करते है तब जीव द्रव्य में व्यवस्थित नारक, तिर्यच, आदि पर्यायों के पृथक्-पृथक् दर्शन होते है । द्रव्यार्थिक नयों के 10 भेद कर्मोपधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय कम्माणं मज्झगयं जीवं जो गहइ सिद्धसंकासं । भण्णइ सो सुद्धणओ खलु कम्मोवाहिणिरवेक्खो ॥18॥ कर्मणां मध्यगतं जीवं यो गृह्णाति सिद्धसंकाशम् । भण्यते स शुद्धनयः खलु कर्मोपाधिनिरपेक्षः ।।18।। — तिर्यच, मनुष्य, अर्थ जो कर्मों के मध्य में स्थित अर्थात् कर्मों से लिप्त जीव को सिद्धों के समान शुद्ध ग्रहण करता है उसे कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय कहते हैं । विशेषार्थ - कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय कर्मो से युक्त संसारी जीव को सिद्ध समान शुद्ध ग्रहण करता है । वह जीव के साथ जो कर्म, नोकर्म, आदि का सम्बन्ध है उसे गौण कर मात्र मुक्त जीववत् देखता है । यह नय कर्म-संयोग से उत्पन्न अशुद्धता को गौण कर, कर्म- संयोग से रहित सिद्ध परमेष्ठी सदृश प्राणी मात्र को देखने का दृष्टिकोण प्रदान करता है । औदयिक भाव कृत अशुद्धता को छोड़कर, क्षायिक भाव रूप शुद्धता का ग्रहण करना इस नय का प्रयोजन है । उत्पाद व्यय निरपेक्ष सत्ता ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय उप्पादवयं गोणं किच्चा जो गहइ केवला सत्ता । भण्णइ सो सुद्धणओ इह सत्तागाहओ समए ॥19॥ Jain Education International देव 17 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002704
Book TitleLaghu Nayachakrama
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherPannalal Jain Granthamala
Publication Year2002
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size3 MB
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