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________________ ब्रह्महेमचंद्रविरचित विशेषार्थ आचारांग के अठारह हजार पदों के द्वारा यह बतलाया गया है कि किस प्रकार चलना चाहिए ? किस प्रकार खड़े रहना चाहिए, किस प्रकार बैठना चाहिए ? किस प्रकार शयन करना चाहिए ? किस प्रकार भोजन करना चाहिए ? किस प्रकार संभाषण करना चाहिए ? जिससे कि पाप का बन्ध नहीं होता । - यत्नपूर्वक चलना चाहिए, यत्नपूर्वक ठहरना चाहिए, यत्नपूर्वक बैठना चाहिए, यत्नपूर्वक सोना चाहिए, यत्नपूर्वक भोजन करना चाहिए और यत्नपूर्वक भाषण करना चाहिए, इस प्रकार पापबन्ध नहीं होता । इस आचारांग में चर्याविधि आठ शुद्धियाँ, पाँच समितियों और तीन गुप्तियों के भेदों की प्ररूपणा की जाती है, इस प्रकार यह मुनियों के आचरण का वर्णन करता है। णाणं तह विणयादी किरियाविविहं परूवणं भणियं । छत्तीसं च सहस्सा सुद्दयडपयं णमंसामि ॥10॥ 36000 अर्थ :- ज्ञान तथा विनयादि विविध क्रियाओं का विवेचन 36 000 पदों के द्वारा जो श्रुतज्ञान करता है। ऐसे सूत्रकृतांग को मैं नमस्कार करता हूँ । विशेषार्थ छत्तीस हजार पद प्रमाण सूत्रकृतांग में ज्ञानविनय, प्रज्ञापना, कल्प्याकल्प्य, छेदोपस्थापना और व्यवहार धर्म क्रियाओं की दिगन्तर शुद्धि से प्ररूपणा की जाती है। तथा यह स्वसमय और परसमय का भी निरूपण करता है। यह अंग स्त्री संबंधी परिणाम, क्लीवता, अस्फुटत्व, काम का आवेश, विलास, आस्फालन- -सुख और पुरुष की Jain Education International For Private & Personal Use Only [4] www.jainelibrary.org
SR No.002703
Book TitleShruta Skandha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramha Hemchandra, Vinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year2002
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, canon, & Agam
File Size3 MB
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