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________________ अलंकार काव्य की शोभा में वृद्धि करनेवाले तत्त्व का नाम अलंकार है । काव्य को आकर्षक एवं हृदयग्राही बनाने के लिए अलंकारों की अत्यन्त श्रावश्यकता होती है । अलंकार के योग से उसका सौन्दर्य द्विगुणित हो जाता है । दूसरे शब्दों में, अलंकार रस अथवा भाव के उपकार हैं । सामान्यतः इसके दो भेद माने जाते हैं 1. शब्दालंकार और 2. अर्थालंकार 1. शब्दालंकार - शब्दालंकार वहां होते हैं जहां कथन का चमत्कार उसमें प्रयुक्त शब्दों की प्रावृत्ति पर निर्भर करता है। यदि उक्ति में से सम्बद्ध शब्दों को हटाकर उनके पर्यायवाची शब्द रख दिए जाएँ तो उसका चमत्कार ही समाप्त हो जाता है । अत: शब्द पर आधृत होने के कारण इन्हें शब्दालंकार कहा जाता है । जैसे अनुप्रास, यमक, श्लेष आदि । 2. अर्थाकार - अर्थालंकार वहां होते हैं जहां अलंकार का सौन्दर्य शब्द पर निर्भर न कर उसके अर्थ पर निर्भर करता है। किसी शब्द के स्थान पर उसके पर्यायवाची शब्द का प्रयोग कर दिए जाने पर उसका अलंकारत्व यथावत बना रहता है | अतः ऐसे अलंकार को अर्थालंकार की संज्ञा से अभिहित किया जाता है । जैसे— उपमा, रूपक, अतिशयोक्ति, आदि । शब्दालकार अभ्यास-51 1. अनुप्रास अलंकार - पद और वाक्य में वर्णों की अनुप्रास का अर्थ होता है बारम्बार निकट रखना प्रयोग । उदाहरण हा हागाह सुदंसण सुंदर सोमसुह । सुण सलोण सुलक्खण जिणमइगरुह | 214 ] Jain Education International प्रावृत्ति का नाम अनुप्रास है । अर्थात् वर्णों का बार-बार For Private & Personal Use Only - सुदंसणचरिउ 8.41.1 [ अपभ्रंश अभ्यास सौरभ www.jainelibrary.org
SR No.002697
Book TitleApbhramsa Abhyasa Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1996
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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