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________________ (5) परियणहिहयहरणु गुणगणरिणहि दह छहसयलु लहु य अविचलदिहि । णहमरिण कि रणअरुण कयरणहयलु भुयबल-तुलिय-सवल-दिस गय उलु । -सु. च. 1.51-8 अर्थ-वह अपने परिजनों के हृदय को हरण करने वाला तथा गुणों के समूह का निधान था। वह षोडश कलाओं से संयुक्त तथा सहज ही अविचल धैर्यधारण करता था। वह श्रेणिक राजा अपने नखरूपी मरिणयों की किरणों से नमस्थल को लाल करता था और अपने बाहुबल से सबल दिग्गजों के समूह को तोलता था । (6) के ण णिव्वाण सेलो समुच्चालियो, केण मूढेण कालाणलो जालियो । को गिरु भेइ चंडंसुणो संदणं, को विमाणं पि एवं मणाणंदणं ।। -सु. च. (11.14.8-10) अर्थ-किसने सुमेरु पर्वत को चलायमान किया है ? किस मुर्ख ने काला. नल को प्रज्ज्वलित किया है ? कौन ऐसा है जो सूर्य के रथ को रोके ? और कौन है वह जो इस मनानन्ददायी विमान को रोके ? (7) गुण जुत्त भो मित्त । जाईहिं पयईहिँ । -सु. च. 4.12.1-2 अर्थ-हे गुणवान मित्र, उक्त प्रकृतियों, सत्वों ............ । (8) पहुत्तो अणंतो पुलिदेरण जित्तो । भएणं पणट्ठो णिो नाम रुट्ठो ।। -सु. च. 10.5.6-7 अर्थ-अनंत सेनापति वहां पहुंचा। किन्तु पुलिन्द ने उसे जीत डाला । अनंत भयभीत होकर माग पाया तब राजा रुष्ट हुआ । (9) देउल देउ वि सत्थु गुरु, तित्थु वि वेउ वि कव्वु । वच्छु जु दीसइ कुसुमियउ, इंधणु होसइ सव्वु ।। -परमात्मप्रकाश, 130 अर्थ-देवल (देवकुल/जिनालय), देव (जिनदेव) भी शास्त्र, गुरु, तीर्थ भी, वेद भी, काव्य, वृक्ष जो कुसुमित दिखायी पड़ता है वह सब ईंधन होगा। 206 [ अपभ्रंश अभ्यास सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002697
Book TitleApbhramsa Abhyasa Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1996
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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